पिछले दो दशकों में कर्जे में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं महाराष्ट्र में चिंता का विषय बनी हुयी हैं. कर्जे की इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने बहुत से कदम उठाए भी हैं, लेकिन अन्य समस्याओं के अलावा अब क्लाइमेट चेंज ने भी कृषि को और संघर्षपूर्ण बना दिया है. आज भी महाराष्ट्र का किसान सूखे की विभीषिका को झेल रहा है. बीते दो दशकों में मराठी सिनेमा में भी बहुत अच्छा काम हुआ है, जिसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना और पुरस्कार मिले हैं. ‘ख्वाड़ा’ ‘बलीराजाञ्च राज्य येऊ दे’ ‘टिंग्या’ जैसी कुछ अर्थपूर्ण फिल्में मराठी में बनी हैं , जिनके केंद्र में किसान, उनका जीवन और दिक्कतें हैं.
ऐसी ही एक फिल्म है ‘रिंगन’ (यानी परिक्रमा या चक्र). फिल्म निर्देशक मकरंद माने की यह पहली फीचर फिल्म थी. किसानों के मुद्दों पर केन्द्रित अन्य फिल्मों से यह फिल्म इस मायने में अलग है कि यह एक गंभीर समस्या में फंसे व्यक्ति की अपने बेटे के साथ रिश्ते और ईश्वर पर उसकी आस्था की भी बात करती है.
कहानी सरल सी है. क़र्ज़े में डूबा किसान अर्जुन मगर अपने आठ वर्षीय बेटे अभिमन्यु को लेकर पंढरपुर की यात्रा पर निकल जाता है. कहानी इसी यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती है. शुरुआती दृश्य भयावह है. यह दृश्य बतलाता है कि अर्जुन मगर कितनी गंभीरता से आत्महत्या के बारे में सोच रहा है. अंधेरे में एक पेड़ से लटकती लाशों का दुःस्वप्न अर्जुन को नींद से झकझोर देता है. हाल ही में उसकी पत्नी की मृत्यु हुयी है और पिछले तीन सालों से सूखा झेलती उसकी ज़मीन बंजर पड़ी है. यह उसका छोटा बेटा अभिमन्यु ही है, जिसके बारे में सोच कर वह आत्महत्या के ख्याल को बार-बार झटक देता है जबकि गांव में एक-एक करके कर्ज़ से ग्रसित किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं.
अपनी परिस्थितियों से तंग आकर वह पंढरपुर की तरफ निकल जाता है. पंढरपुर महाराष्ट्र का एक अहम तीर्थ स्थल है जहां विठोबा का मंदिर स्थित है. हर वर्ष आषाढ़ी एकादशी पर देश भर से भक्त वहां इकट्ठा होते हैं और भजन गाते हुए परिक्रमा करते हैं. अब अर्जुन के जीवन का अपना संकट है और उसके बेटे अभिमन्यु की अपनी अलग लालसा. इस छोटे से बच्चे को जन्म-मृत्यु के बारे में नहीं पता. उसके पिता ने बता दिया है कि उसकी मां विठोबा यानी भगवान के पास चली गयी है. अभिमन्यु ये जान कर खुशी से झूम उठता है कि उसके पिता उसे विठोबा के घर पंढरपुर ले जा रहे हैं.
उसे उम्मीद है कि वहां उसे उसकी मां मिल जाएगी. अनेक समस्याओं से जूझते हुए अर्जुन का ईश्वर पर भरोसा डगमगाने लगता है. वह क्षुब्ध होकर कहता है कि ईश्वर की इस दुनिया का यही दस्तूर है कि अमीर और अमीर होते जाते हैं और वंचित वर्ग और भी गरीब. लेकिन इसी निराशा के बीच उसे एक काम मिल जाता है और वह उत्साहित होकर कुछ पैसा बचाने लगता है ताकि अपनी ज़मीन को छुड़वा सके.
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उधर अभिमन्यु इस फिराक में है कि वह अपनी मां से कैसे मिले. शराब के नशे में जब उसका पिता एक सेक्स वर्कर के पास चला जाता है, तो अभिमन्यु उसे ही अपनी मां समझ लेता है. किस तरह वो सेक्स वर्कर अभिमन्यु को मां की मृत्यु के बारे में समझाती है. यह मार्मिक दृश्य है.
अभिमन्यु अपने पिता को चोरी करने से भी बचाता है. बेटा एक तरह से पिता की नैतिक कम्पास है. फिल्म का अंत एक सकारात्मक स्वर में होता है. अपने मौजूदा मालिक की मदद से अर्जुन कर्जे का कुछ हिस्सा चुका कर अपनी ज़मीन वापिस लेता है और अभिमन्यु को एहसास हो जाता है कि उसकी मां जा चुकी है और पिता ही अब उसका संरक्षक है और उससे बहुत प्यार करता है. अर्जुन गांव के एक ऐसे किसान के रूप में उभरता है, जिसने कठिन हालात से पलायन नहीं किया बल्कि अपनी ज़मीन छुड़वाने के लिए पूरा संघर्ष किया. अर्जुन की ईश्वर में आस्था को फिर एक संबल मिलता है.
इस तरह एक साधारण सी कहानी के जरिए न सिर्फ निर्देशक मकरंद माने एक किसान के संघर्षों को दर्शाते हैं, बल्कि एक पिता और बेटे के रिश्ते, और ईश्वर के प्रति मनुष्य की आस्था में आने वाले उतार-चढ़ावों को भी खूबसूरती से दिखलाते हैं. एक इंटरव्यू में निर्देशक मकरंद माने ने फिल्म का उद्देश्य बताते हुए कहा था, “अपनी फिल्म के जरिए मैं यह बदलाना चाहता था कि निश्चित तौर पर विपरीत परिस्थितियों में खेती करना किसान के लिए आसान नहीं है, लेकिन आत्महत्या करना इसका हल नहीं. हमें अपनी परिस्थितियों से जूझते हुए सफलता हासिल करना है. अपने परिवार के प्रति दायित्व को निभाना है.“ और वाकई, ‘रिंगन’ इस बात को बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से पेश करती है.
किसान अर्जुन मगर की भूमिका में थे शशांक शेन्दे. शशांक ने एक इंटरव्यू में बताया कि उनके बेटे की भूमिका अदा करने वाले बच्चे साहिल जोशी दरअसल ऑडिशन का हिस्सा नहीं थे. वे किसी और के साथ आए थे और उनके पिता की हाल में ही मृत्यु हुई थी. साहिल के चेहरे पर जो एक उदासी और मासूमियत का भाव था. उसे देख कर निर्देशक ने उन्हें ही इस रोल के लिए चुना. यह फिल्म इस बात का सुबूत है कि साहिल एक ऐसे बच्चे की भूमिका में खरे उतरे जिसने हाल में अपने अभिभावक को खोया है.
‘रिंगन’ ना सिर्फ जीवन-चक्र का प्रतीक है बल्कि मनुष्य में निहित जो मूल भलाई और अच्छाई की भावना है, उसका भी जीवंत चित्रण है. इसीलिए इस फिल्म में कोई भी पात्र बुरा या दुष्ट नहीं बल्कि सभी अपने हालात की उपज हैं.
भीड़ भरे पंढरपुर में फिल्म शूट करना मुश्किल काम था लेकिन निर्देशक मकरंद माने से बीस दिन में यह शूटिंग पूरी की और सीमित संसाधनों में एक खूबसूरत फिल्म बनाई. ‘रिंगन’ को 2015 में सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया. अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भी इसे बहुत प्रशंसा मिली. लेकिन बदकिस्मती से निर्माताओं को दो साल लगे डिस्ट्रीब्यूटर तलाशने में. आखिरकार 2017 में यह फिल्म रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफिस पर भी इसने ठीकठाक कारोबार किया.
एक गरीब किसान को ही नहीं बल्कि एक आम जन को संबोधित करती फिल्म है ‘रिंगन’. तमाम कठिनाइयों से जूझते हुए जीवन के प्रति आस्था डगमगाने लगे तो एक नए विश्वास और उत्साह का संचार करने वाली यह फिल्म ज़रूर देखी जानी चाहिए.
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