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Peepli Live: किसानों और ग्रामीण भारत के मुद्दों को दिलचस्प अंदाज में दिखाती एक जरूरी फिल्म

Peepli Live: किसानों और ग्रामीण भारत के मुद्दों को दिलचस्प अंदाज में दिखाती एक जरूरी फिल्म

‘पीपली लाइव जैसी कहानी पर फिल्म बनाना एक बड़ा आर्थिक जोखिम लेना था. लेकिन हिन्दी फिल्मों के सफल अभिनेता और प्रोड्यूसर आमिर खान ने ये बीड़ा उठाया. उन्होने ही अनुषा से कहा कि चूंकि वे इस कहानी की जटिलता को इतनी अच्छी तरह से जानती हैं.

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किसानों और ग्रामीण भारत के मुद्दों को प्रकाशित करती एक महत्वपूर्ण व्यंगपूर्ण फिल्म किसानों और ग्रामीण भारत के मुद्दों को प्रकाशित करती एक महत्वपूर्ण व्यंगपूर्ण फिल्म

वर्ष 2020-21 में हुए किसान आंदोलन के बाद किसानों के मुद्दे देश की शहरी जनता के सामने पहले से अधिक उजागर हुए. फिर रोजाना बढ़ती दाल-सब्जी की कीमतों ने भी लोगों का ध्यान किसानों की समस्याओं की तरफ खींचा है. कृषि से जुड़ी बहुत सारी दिक्कतों में अहम है कर्ज़ा. दुखद बात यह है कि इसके चलते बहुत से किसानों ने आत्महत्या भी की. यूं तो दुनिया भर में किसानों की आत्महत्या ने विभिन्न देशों के नीति निर्माताओं को प्रभावित किया है और ऐसी नीतियां बनाई गयी हैं ताकि किसानों पर कर्जे का बोझ कम किया जा सके, लेकिन भारत में तमाम प्रयासों के बावजूद ऐसी कोई ठोस नीति कारगर साबित नहीं हो पायी है.

साल 2004-5 में किसानों की आत्महत्या के मामले ने ज़ोर पकड़ा और सरकार का ध्यान भी इस तरफ गया. अनेक नीतियों और मुआवजों की घोषणा की गई. यही वो वक्त था जब ‘पीपली लाइव’ की कहानी निर्देशक अनुषा रिजवी के दिमाग में आई.

'राजनीतिक व्यंग’ पर आधारित फिल्म

अनुषा रिजवी टीवी पत्रकार रह चुकी थीं. वे मीडिया की पेचीदगी, टी आर पी का दवाब और खबरों में मुद्दों से छेड़छाड़, इन सभी से अच्छी तरह वाकिफ थीं. इन सभी के बीच में हम सबकी ज़िंदगी से जुड़े अहम मुद्दे कैसे एक तमाशे में तब्दील हो जाते हैं- ‘पीपली लाइव’ की कहानी का लब्बोलुबाब यही है. अब हम बात करते हैं हिन्दी फिल्मों में ‘डार्क ह्यूमर’, ‘राजनीतिक व्यंग’ शैली की. यह हमारी फिल्मी दुनिया की विडम्बना ही है कि असल ज़िंदगी में निहित त्रासदी और हास्य को हम फिल्मों में नहीं दिखा पाए हैं. कमर्शियल सिनेमा की अपनी बाध्यता और दवाब होते हैं. लेकिन हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री शायद अकेली ऐसी इंडस्ट्री है जिसमें सारगर्भित राजनीतिक व्यंग और ‘डार्क ह्यूमर’ को उचित स्थान नहीं मिला है.

आर्थिक जोखिम से भरा था फिल्म

80 के दशक में जब समानान्तर सिनेमा की शुरुआत हुई तब इस विधा में कुछ फिल्में बनी जिनमें ‘जाने भी दो यारो!’ सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुई. इसके बाद इस तर्ज़ पर कुछ फिल्में बनी लेकिन बॉक्स ऑफिस पर धड़ाम हो गईं. समानान्तर सिनेमा भी धीरे-धीरे पीछे छूट गया. ऐसे में ‘पीपली लाइव जैसी कहानी पर फिल्म बनाना एक बड़ा आर्थिक जोखिम लेना था. लेकिन हिन्दी फिल्मों के सफल अभिनेता और प्रोड्यूसर आमिर खान ने ये बीड़ा उठाया. उन्होने ही अनुषा से कहा कि चूंकि वे इस कहानी की जटिलता को इतनी अच्छी तरह से जानती हैं, इसलिए फिल्म का निर्देशन भी उन्हें ही करना चाहिए.

किसानों के जीवन पर आधारित फिल्म

अनुषा पत्रकार और लेखक तो थीं लेकिन फिल्म निर्देशन बिलकुल नया और अलग काम था. इसमें उनकी मदद की उनके पति महमूद फ़ारुकी ने. अब कलाकारों की खोज की गई. किसानों और गांवों के जीवन पर आधारित इस कहानी के लिए ऐसे अभिनेताओं की ज़रूरत थी जो उस खांचे में फिट हो सकें. रघुबीर यादव, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, नसीरुद्दीन शाह और फारुख जाफ़र ऐसे कुछ अभिनेता थे जिनकी सिनेमा और थिएटर दोनों में अच्छी पैठ थी और वे किसी भी किरदार में ढलने की काबिलियत रखते थे. अन्य कलाकारों के लिए मशहूर रंगमंचकर्मी हबीब तनवीर की नाट्य संस्था ‘नया थिएटर’ की मदद ली गई. ‘पीपली लाइव’ के ज़्यादातर कलाकार रंगमंच से थे. निर्देशक नया, लेखक नया, और अभिनेता भी नए यह एक अनुभवहीन लेकिन उत्साही लोगों का समूह था, जो किसानों के मुद्दे पर एक सार्थक फिल्म बनाना चाहता था. अच्छी बात ये थी कि सभी तकनीकी लोग अनुभवी थे.

दो किसान भाइयों की कर्ज़ में डूबाने की कहानी 

फिल्म की कहानी है दो किसान भाइयों की बुधिया (रघुबीर यादव) और नाथा (ओंकार दास मानिकपुरी). कर्ज़ में डूबा हुआ बुधिया परेशान है कि अगर बैंक का कर्ज़ नहीं चुकाया तो बैंक उसकी ज़मीन पर कब्जा कर लेगा. बुधिया कहीं सुनता है कि जो किसान आत्महत्या कर लेते हैं सरकार उसके परिवार को एक लाख रुपये का मुआवज़ा दे रही है. बुधिया और नाथा बात करते हैं और यह तय होता है कि नाथा आत्महत्या करेगा. नाथा एक भोलाभाला, अपनी दुनिया में मस्त रहने वाला शख्स है जिसे दुनियादारी की ज़्यादा समझ नहीं है. संयोग से, उनकी ये बातचीत एक पत्रकार (नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) सुन लता है. स्थानीय अखबार में खबर छप जाती है कि पीपली गांव का एक किसान आत्महत्या करने जा रहा है.

राजनितिक लाभ की दिखाई गई  है कहानी

वहां से यह खबर नेशनल चैनल पर आ जाती है और नाथा के घर पर मीडिया का तांता लग जाता है. खबरों में नाथा पर फोकस देख कर राजनेता भी वहां आने लगते हैं क्योंकि चुनाव आने वाले हैं. कोई राजनेता उसे हैंडपंप भेंट करता है तो कोई टेलिविजन. एक राजनीतिक गुट चाहता है कि नाथा ख़ुदकुशी कर ले और दूसरा गुट चाहता है कि नाथा ज़िंदा रहे. और न्यूज़ चैनल चाहते हैं कि नाथा की खबर से उनकी टी आर पी बढ़ती रहे.

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इस बीच स्थानीय पत्रकार राकेश एक और किसान होरी महतो को लगातार ज़मीन खोदते हुए देखता है, जो ईंट की भट्टी को मिट्टी बेच-बेच कर अपना गुज़ारा कर रहा है. होरी महतो अपने ही खोदे हुये गड्ढे में मर जाता है, तो राकेश का मोहभंग होने लगता है. इस बीच नाथा सबकी नज़रें चुरा कर कहीं भाग जाता है और अंत में वह दिल्ली-एनसीआर में बन रही भव्य ईमारतों में काम कर रहे मजदूरों के बीच दिखाई देता है.

‘डार्क ह्यूमर’ और मज़े से भरी फिल्म

इस कहानी को एक ऐसी शैली से दिखाया गया है कि हंसी भी आती है और दुख भी होता है. इसे ही कहते हैं ‘डार्क ह्यूमर’. और मज़े की बात ये है कि कहीं भी कुछ भी ऐसा नहीं लगता कि बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जा रहा है. फिल्म को देख कर वाकई लगता है कि यथार्थ कहानी से कहीं अधिक विचित्र होता है. अनुषा ने कहानी को बगैर किसी भावुकता के जस का तस दिखाने के लिए लॉन्ग और मिड शॉट्स का इस्तेमाल किया, क्लोज़ अप का नहीं. एक इंटरव्यू में उन्होने बताया, “ चूंकि अभिनेताओं को कैमरे के सामने अभिनय करने का अनुभव नहीं था, इसलिए उनके क्लोज़ अप्स नहीं दिखाये गए. इससे एक बात और हुई- हम कहानी को बगैर किसी मेलोड्रामा के दिखा पाये, जो ज़्यादा असरदार था.

‘पीपली लाइव के प्रोड्यूसरों का अनुमान था कि फिल्म का विषय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों के अनूकूल है, इसलिए फिल्म को दुनिया के प्रतिष्ठावान फिल्म फ़ेस्टिवल्स में चयन के लिए भेजा गया. ‘पीपली लाइव’ अमेरिका के सनडांस फेस्टिवल में चयनित पहली भारतीय फिल्म थी. इसके बाद तो इस फिल्म को दुनिया के अनेक फिल्म महोत्सवों में सराहा गया. इसे ऑस्कर पुरस्कार के लिए भी नोमिनेट किया गया.

समाज में एक जागरूकता के लिए बनी फिल्म

बाद में अनुषा ने एक इंटरव्यू में बताया कि “लगभग हर फिल्म स्क्रीनिंग के बाद ये सवाल किया जाता कि “इस स्थिति का निदान क्या है?” और हर स्क्रीनिंग में हमने यही कहा कि हमें नहीं मालूम. इस फिल्म का मकसद कोई हल बताना नहीं है, बल्कि जो भी हालात हैं, या किसानों की जो दिक्कतें हैं, उनके प्रति समाज में एक जागरूकता, एक बेचैनी लाना है.“ कहना ना होगा कि 2010 में रिलीज़ हुई इस फिल्म ने भारतीय बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छी कमाई की और यह साबित कर दिया कि गंभीर विषय पर एक सार्थक और रोचक फिल्म बनाई जाये तो वह व्यावसायिक तौर पर भी सफल हो सकती है. इसका एक गीत “महंगाई डायन खाये जात है!” बहुत लोकप्रिय हुआ.

लेकिन अफसोस, कि 20-22 साल बाद भी किसानों की हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है. हां, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि अब किसान अपनी दिक्कतों को लेकर कहीं ज़्यादा मुखर हुए हैं, और अब राष्ट्रीय स्तर पर उनसे संबन्धित विषयों पर चर्चा भी होती है. इसमें एक छोटा सा योगदान इस फिल्म का भी रहा है.