हाल के वर्षों में भारत में धान की खेती का रकबा लगातार बढ़ रहा है. पिछले पांच सालों में धान का रकबा लगभग 56.54 लाख हेक्टेयर बढ़ा है. इस वृद्धि में तेलंगाना और उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा योगदान है, 31.96 लाख हेक्टेयर लाख यानी कुल वृद्धि दोनो राज्यो की 68 फीसदी है. साल 2020-21 में धान का कुल रकबा 457.69 लाख हेक्टेयर था, जो बढ़कर 2024-25 में 514.23 लाख हेक्टेयर हो गया है. धान एक ऐसी फसल है जिसे सबसे अधिक पानी और खाद की जरूरत होती है. तेलंगाना में 2020-21 में धान का रकबा 31.86 लाख हेक्टेयर था, जो 2024-25 में बढ़कर 48.09 लाख हेक्टेयर हो गया. यह लगभग 16.23 लाख हेक्टेयर की वृद्धि दर्शाता है.
उत्तर प्रदेश में 2020-21 में धान का रकबा 56.52 लाख हेक्टेयर था, जो 2024-25 में 72.25 लाख हेक्टेयर हो गया. इस तरह उत्तर प्रदेश में 15.73 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी हुई है. पिछले साल, उत्तर प्रदेश में धान का रकबा अप्रत्याशित 14.93 लाख हेक्टेयर बढ़ा था.
धान के रकबे में वृद्धि के विपरीत, उत्तर प्रदेश में पिछले खरीफ सीजन में मक्का के क्षेत्रफल 2023-24 की तुलना में 2024-25 में खरीफ मक्का का रकबा 5 लाख हेक्टेयर घट गया है, जबकि रबी और गर्मी में मक्का के रकबे में मामूली लगभग 70 हजार हेक्टेयर बढ़ोतरी हुई है. भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान, पूसा, दिल्ली के कृषि वैज्ञानिक डॉ. शंकर लाल जाट का कहना है कि भारत आज भी प्रोटीन की कमी, घटती मिट्टी की उर्वरता, जल संकट और खाद्य तेल आयात पर निर्भरता जैसी गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है.
भारत हर साल लगभग 1 लाख करोड़ रुपये का खाद्य तेल और 12 हजार करोड़ रुपये की दालें आयात करता है. डॉ. जाट के अनुसार, पारंपरिक एकल फसल प्रणाली (मोनोक्रॉपिंग) के कारण जल स्तर गिर रहा है, मिट्टी की गुणवत्ता घट रही है और किसानों की आय स्थिर हो गई है. अगर धान की फसल इसी तरह बढ़ती रही और अन्य फसलों को निगलती रही, तो यह एक गंभीर समस्या होगी. इसलिए, यह जरूरी है कि राज्य सरकारें धान के बजाय मक्का सहित अन्य फसलों के बीजों, सीडिंग मशीन और हार्वेस्टर जैसी मशीनों पर सब्सिडी दें और इसके लिए नीतियां बनाएं.
डॉ. शंकर लाल जाट ने सुझाव दिया है कि मक्का एक ऐसी फसल है जिससे किसान खरीफ में खेती करके आसानी से बहुत फायदा उठा सकते हैं, क्योंकि इथेनॉल उत्पादन के कारण मक्का की मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है. उनके अनुसार, मक्का-सरसों-मूंग (MMM) फसल प्रणाली भारत के लिए कृषि, पोषण, जल संरक्षण और खाद्य तेल आत्मनिर्भरता की दिशा में एक व्यावहारिक, पर्यावरण-संवेदनशील और किसान-हितैषी मॉडल है.
यह प्रणाली देश की समस्याओं के साथ-साथ किसानों और आम लोगों की समस्याओं का समाधान कर सकती है. MMM प्रणाली से प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ में 25-30 फीसदी की वृद्धि संभावित है. किसान साल में तीन बार मक्का, सरसों और मूंग की कटाई करके आय प्राप्त कर सकते हैं. इससे किसानों को तेजी से नकदी फसलें मिलती हैं और उत्पादन लागत कम होने से मुनाफा बढ़ता है.
मक्का प्रोटीन और कैलोरी का एक अच्छा स्रोत है. सरसों से शुद्ध और उच्च गुणवत्ता वाला खाद्य तेल प्राप्त होता है. मूंगफली जैसी दलहन फसलें न केवल प्रोटीन प्रदान करती हैं, बल्कि मिट्टी में नाइट्रोजन भी जोड़ती हैं. यह प्रणाली मानव और पशु आहार के लिए बेहतर विकल्प उपलब्ध कराती है और कुपोषण की समस्या को कम करने में सहायक है. भारत में खाद्य तेल की खपत लगातार बढ़ रही है. MMM प्रणाली के अंतर्गत सरसों की खेती से देश में गुणवत्तापूर्ण खाद्य तेल का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, जिससे आयात पर निर्भरता घटेगी और उपभोक्ताओं को शुद्ध खाद्य तेल उपलब्ध होगा. यह दाल और खाद्य तेल आयात पर नियंत्रण पाने में भी मदद करेगा.
धान-गेहूं जैसी जल-प्रधान फसलों की अधिक सिंचाई आवश्यकता ने कई राज्यों में जल स्तर घटा दिया है. MMM प्रणाली में मक्का और मूंग की सिंचाई आवश्यकता कम होती है, और सरसों वर्षा आधारित फसल है. इससे भूजल का दोहन कम होता है और जल संरक्षण संभव होता है. दलहन फसलें जैसे मूंग मिट्टी में जैविक नाइट्रोजन जोड़ती हैं, जिससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है. यह प्रणाली मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारती है और दीर्घकालिक उत्पादकता बनाए रखती है.
MMM प्रणाली से उत्पादित मक्का, सरसों का तेल और मूंग मानव और पशु दोनों के लिए पोषणयुक्त आहार प्रदान करते हैं. पशुओं के लिए मक्का का चारा और मूंग का भूसा अच्छा पोषक तत्व है. सरसों की खली से पौष्टिक पशु आहार तैयार होता है. इससे पशुधन का स्वास्थ्य भी बेहतर होता है. धान-गेहूं जैसी जल-प्रधान फसलों से ग्लोबल वार्मिंग गैसों का उत्सर्जन अधिक होता है, जबकि MMM प्रणाली में कम जल की आवश्यकता होती है, दलहन फसलें नाइट्रोजन स्थिरीकरण करती हैं, और कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन होता है, जिससे पर्यावरणीय लाभ मिलते हैं.
देश के कृषि वैज्ञानिक, नीति निर्माता और किसान समूह मिलकर MMM फसल प्रणाली को एक जन-अभियान का रूप दे सकते हैं. अगर इसे बड़े स्तर पर अपनाया जाए, तो यह देश को पोषण और खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के साथ-साथ कृषक समृद्धि और पर्यावरण संरक्षण का एक आदर्श उदाहरण बन सकती है.
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