हवा में बढ़ता प्रदूषण न सिर्फ हमारे फेंफड़ों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि कहीं न कहीं हमारे सूंघने की शक्ति को भी कम रहा है. पिछले साल जारी हुई एक रिसर्च में भी इसे लेकर दावा किया गया था. दिल्ली में नवंबर के महीने में हर साल AQI का ग्राफ खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है, जो हमारे लिए बहुत ही नुकसानदायक है. गंध महसूस न कर पाना हमारे पूरे जीवन की क्वालिटी पर असर डाल सकता है. श्वसन संक्रमण इस महत्वपूर्ण सेंस के अस्थायी नुकसान का कारण बन सकता है, इससे धीरे धीरे सूंघने की क्षमता कम होती जाती है.
बता दें कि PM2.5 से लगातार बढ़ता हमारा एक्सपोजर हमें इस नुकसान की तरफ धकेलने का काम कर रहा है. ये शोध इसे सही पैमाने पर बताता है, इसके निष्कर्ष आज हम सबके लिए प्रासंगिक हैं. आज जब पीएम 2.5 जैसे कई प्रदूषक बड़े पैमाने पर वाहनों, बिजली स्टेशनों और हमारे घरों में ईंधन के दहन से वातावरण में फैल रहे हैं. ऐसे में हमें आज रुककर कुछ सोचना होगा.
गौरतलब है कि हमारे दिमाग के निचले हिस्से में नाक के छिद्रों के ठीक ऊपर घ्राण बल्ब होता है. टिश्यू का यह संवेदनशील टुकड़ा ही हमें सूंघने का संदेश देने में मदद करता है. यह मस्तिष्क में प्रवेश करने वाले वायरस और प्रदूषकों के खिलाफ हमारी रक्षा की पहली पंक्ति भी है. लेकिन, बार-बार जोखिम के चलते इसका बचाव पक्ष धीरे-धीरे खराब होने लगता है.
जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल ऑफ मेडिसिन, बाल्टिमोर के राइनोलॉजिस्ट मुरुगप्पन रामनाथन जूनियर ने BBC से कहा कि हमारा डेटा दिखाता है कि निरंतर कणीय प्रदूषण के साथ एनोस्मिया (सूंघने की शक्ति का खत्म होना) विकसित होने का जोखिम 1.6 से 1.7 गुना बढ़ गया है. डॉ रामनाथन लंबे समय से एनोस्मिया रोगियों पर काम कर रहे हैं.
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इस रिसर्च में उन्होंने ये भी अध्ययन किया है कि एनोस्मिया से पीड़ित लोग क्या उच्च पीएम 2.5 प्रदूषण वाले क्षेत्रों में रह रहे थे? कुछ समय पहले तक, इस विषय पर छोटे वैज्ञानिक शोध में 2006 में एक मैक्सिकन अध्ययन शामिल था, जिसमें मजबूत कॉफी और नारंगी गंध का इस्तेमाल किया गया था, यह दिखाने के लिए कि मेक्सिको सिटी के निवासी जो अक्सर वायु प्रदूषण से जूझते हैं. उनकी तुलना में उनमें ग्रामीण इलाकों में रहने वालों की तुलना में गंध की क्षमता कम होती है.
रामनाथन ने चार साल की अवधि में पर्यावरणीय महामारी विज्ञानी झेन्यु झांग सहित सहयोगियों की मदद से जॉन्स हॉपकिन्स अस्पताल में भर्ती हुए 2,690 रोगियों के डेटा का एक केस-कंट्रोल अध्ययन स्थापित किया. इसमें पाया गया कि लगभग 20% को एनोस्मिया था और अधिकांश धूम्रपान नहीं करते थे. एक ऐसी आदत जो गंध की भावना को प्रभावित करने के लिए जानी जाती है.
निश्चित रूप से, पीएम 2.5 का स्तर उन इलाकों में "काफी अधिक" पाया गया जहां स्वस्थ नियंत्रण प्रतिभागियों की तुलना में एनोस्मिया के रोगी रहते थे. यहां तक कि जब उम्र, लिंग, जाति/जातीयता, बॉडी मास इंडेक्स, शराब या तंबाकू के उपयोग के लिहाज से अध्ययन किया गया तो भी निष्कर्ष वही निकला. इस निष्कर्ष से साफ था कि PM2.5 के संपर्क में रहने वाले लोगों में एनोस्मिया की थोड़ी सी भी वृद्धि इस समस्या से जुड़ी हो सकती है.
ऐसे में हमें और भी सचेत होने की जरूरत है. आखिर वायु प्रदूषण की ये समस्या हमें कहां ले जा रही है. हम अपने ज्ञानेंद्रियों से मिलने वाले संकेतों को भी अगर महसूस करने से वंचित होते हैं तो ये प्रकृति से हमारा जुड़ाव कम करेगा.
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