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पराली, द‍िवाली और क‍िसानों को 'व‍िलेन' बनाना बंद कर‍िए...द‍िल्ली वालों की अपनी 'खेती' है प्रदूषण 

पराली, द‍िवाली और क‍िसानों को 'व‍िलेन' बनाना बंद कर‍िए...द‍िल्ली वालों की अपनी 'खेती' है प्रदूषण 

Air Pollution: एक बार फ‍िर दिल्ली दिवाली से पहले ही गैस चैंबर बन गई है. यहां के लोगों की सांसों पर इस वक्त जहरीली हवाओं का पहरा है. लोग इसके ल‍िए पराली, द‍िवाली और क‍िसानों को ही व‍िलेन मान रहे हैं. लेक‍िन, इनको प्रदूषण के ल‍िए गुनहगार मानना क्या ठीक है या फ‍िर अब द‍िल्ली वालों को अपनी गलत‍ियों की तरफ भी देखने का समय आ गया है?

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अब पराली मैनेजमेंट करके पैसा कमा रहे हैं क‍िसान. अब पराली मैनेजमेंट करके पैसा कमा रहे हैं क‍िसान.

यह कोई डेटेड कहानी नहीं है. द‍िल्ली-एनसीआर में साल दर साल धुंध छाती है और छंट जाती है. लेकिन यहां के लोगों के द‍िमाग पर जमी धुंध नहीं हटती. दिल्ली की हर सर्दी में आप दिवाली और पराली का नाम साथ-साथ जरूर सुनते होंगे. द‍िल्ली वालों ने इन दोनों शब्दों को 'व‍िलेन' बना डाला है. दरअसल, एयरकंडिशंड दफ्तरों में बैठे बाबू हों या फिर वोटों की फसल काटने वाले हमारे नेता...हर किसी के लिए धान की पराली और क‍िसान 'खलनायक' है. यहां तक क‍ि अदालतों के ल‍िए भी. जब भी धुंध की वजह से दिल्ली-एनसीआर की तस्वीर बदलती है, तब सबको पराली की धुन सुनाई जाती है, जो धुंध के साथ ही गुम हो जाती है. लेकिन पराली को 'व‍िलेन' बनाना किसानों को कितना आहत करता है, क्या इसे द‍िल्ली वालों ने कभी सोचा है?

बहरहाल, एक बार फ‍िर दिल्ली दिवाली से पहले ही गैस चैंबर बन चुकी है. यहां के लोगों की सांसों पर इस वक्त जहरीली हवाओं का पहरा है और लोग पराली-द‍िवाली को गुनहगार मानने वाली पुरानी स्क्रिप्ट दोहरा रहे हैं. लेक‍िन, इन दोनों को प्रदूषण के ल‍िए गुनहगार मानना क्या ठीक है? ब‍िल्कुल नहीं. क्योंक‍ि, द‍िवाली के पटाखे अभी चलने शुरू नहीं हुए और पराली जलने की घटनाएं पहले के मुकाबले कम हो गई हैं. पांच साल पहले की तुलना करें तो पराली जलने की घटनाओं में करीब 75 फीसदी की कमी आ चुकी है, दूसरी ओर द‍िल्ली में प्रदूषण घटने की बजाय हर साल बढ़ रहा है. 

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आंकड़ों का आईना  

इस साल यानी 27 अक्टूबर 2024 को शाम 4 बजे 24 घंटे का औसत एयर क्वाल‍िटी इंडेक्स (AQI) 356 दर्ज किया गया था. जो 'बेहद खराब' श्रेणी में आता है. जबक‍ि प‍िछले साल यानी 27 अक्टूबर 2023 को दिल्ली का औसत AQI स‍िर्फ 249 दर्ज किया गया था. जो 'खराब श्रेणी' में था. आख‍िर पराली जलाने की घटनाएं काफी कमी आने के बाद भी प्रदूषण क्यों और बढ़ गया? द‍िल्ली वालों प्रदूषण के ऐसे हालात के ल‍िए अब पराली, द‍िवाली और क‍िसानों को कोसने की बजाय जरा अपने ग‍िरेबान में झांक कर देखो.

कड़वा सच तो यह है क‍ि द‍िल्ली-एनसीआर का प्रदूषण तुम्हारे अपने घर की खेती है. तमाम आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं. इसल‍िए देश को भुखमरी से बचाने वाले क‍िसानों को प्रदूषण के ल‍िए ज‍िम्मेदार ठहराना अब बंद कर दीज‍िए. इसके ल‍िए क‍िसानों को कटघरे में खड़ा करना बहुत बड़ी बेईमानी है. जब भी आप आंकड़ों की कसौटी पर बात करेंगे तो प्रदूषण के 'सच का सामना' होगा. इसल‍िए आज प‍िछले और मौजूदा आंकड़ों के साथ बात करते हैं. 

पराली जलने की घटनाएं 

2024 5337
2023   8395
2022 10787
2021 10085
2020  21628*
  Source: ICAR 

 *तब स‍िर्फ तीन राज्यों पंजाब, हर‍ियाणा और उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की घटनाओं की मॉन‍िटर‍िंग होती थी और उसकी शुरुआत 1 अक्टूबर से की जाती थी. साल 2020 का आंकड़ा 1 से 27 अक्टूबर तक का है.  

2020 के बाद से 6 राज्यों पंजाब, हर‍ियाणा, उत्तर प्रदेश, द‍िल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश की मॉन‍िटर‍िंग होती है. अब मॉन‍िटर‍िंग की शुरुआत 15 स‍ितंबर से ही हो जाती है. साल 2021 से 2024 तक के आंकड़े 15 स‍ितंबर से 27 अक्टूबर तक के हैं.

कौन क‍ितना ज‍िम्मेदार? 

तो फ‍िर सवाल उठता है क‍ि द‍िल्ली के प्रदूषण के ल‍िए ज‍िम्मेदार कौन है? इसका जवाब द‍िल्ली वालों को जरूर जानना चाह‍िए. देश के प्रिंसिपल साइंटिफिक एडवाइजर के ऑफिस से जारी एक र‍िपोर्ट में बताया गया है क‍ि दिल्ली के साल भर के प्रदूषण में 30 फीसदी इंडस्ट्री, 28 प्रत‍िशत ट्रांसपोर्ट, 17 फीसदी धूल और 10 परसेंट रेजिडेंट्स का हिस्सा होता है. इसमें खेती का योगदान महज 4 फीसदी ही होता है. तो यकीन मान‍िए क‍ि इस प्रदूषण के ल‍िए द‍िल्ली वाले खुद ज‍िम्मेदार हैं. 

वायु प्रदूषण के ल‍िए क‍िसानों को कोसने वालों क्या कभी आपने खुद से पूछा है क‍ि द‍िल्ली में यमुना नदी को क‍िसने गंदा क‍िया. जाह‍िर है क‍ि द‍िल्ली वालों ने ही यमुना के पानी को जहर बनाया है. तो क्या यमुना में गंदे नालों का ग‍िरना बंद हो गया. क्या वायु प्रदूषण कम करने के ल‍िए लोगों ने अपनी गाड़ियों से आना-जाना छोड़ द‍िया. क्या फैक्ट्रियां खुलनी बंद हो गईं और क्या द‍िल्ली-एनसीआर की सड़कों से धूल खत्म हो गई? 

ऐसे कई सवाल हैं जो द‍िल्ली वालों को खुद से पूछने चाह‍िए. दरअसल, सच तो यह है क‍ि द‍िल्ली के लोगों और यहां की अथॉर‍िटी ने खुद प्रदूषण खत्म करने के ल‍िए कुछ भी नहीं बदला है. द‍िल्ली के लोग अपना कुछ नहीं बदलना चाह‍ते, स‍िवाय इसके क‍ि प्रदूषण के ल‍िए क‍िसानों को कोसा जाए. 

मौसम की मार 

द‍िल्ली में हर साल अक्टूबर से द‍िसंबर तक ज्यादा प्रदूषण होने की वजह मौसम, नमी और हवा के बहाव में कमी भी है. वरना गेहूं की पराली जलने पर भी हाहाकार मचता. देश के पांच राज्यों पंजाब, हर‍ियाणा, यूपी, द‍िल्ली और मध्य प्रदेश में 1 अप्रैल से 31 मई 2023 तक 38,520 जगहों पर गेहूं की पराली जलाई गई थी. लेक‍िन तब द‍िल्ली में ऐसे हालात नहीं हुए, क्योंक‍ि तब मौसम का म‍िजाज कुछ अलग था.

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