मूंगफली की बुवाई देश में लगभग खत्म हो चुकी है. यह प्रमुख तिलहनी फसल है. इसका दाम इस समय 10 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया है. ऐसे में मूंगफली की खेती का खास ध्यान रखना जरूरी है. खासतौर पर इसमें लगने वाले रोगों के मैनेजमेंट को लेकर. मूंगफली की फसल कई तरह की फफूंद, जीवाणु और विषाणुजनित रोगों से प्रभावित होती है. ये फसल के अंकुरण से लेकर कटाई तक फसल को अत्यधिक नुकसान पहुंचाते हैं. अगर रोगों का निदान नहीं किया तो वो आपकी पूरी मेहनत पर पानी फेर देंगे. कृषि वैज्ञानिक जोगेंद्र सिंह, मालूराम यादव, तरुण कुमार, बीरबल बैरवा और संतोष देवी ने मूंगफली में लगने वाले प्रमुख रोगों और उनके निदान के बारे में विस्तार से जानकारी दी है.
मूंगफली की खेती में लगने वाला एक मुख्य रोग जड़ गलन है. यह बीज और मृदाजनित फफूंद (एसपर्जिलस नाइजर) से होने वाला मूंगफली का सबसे घातक रोग माना जाता है. इस रोग का प्रकोप गर्म और शुष्क मौसम तथा रेतीली या दोमट मिट्टी वाले क्षेत्रों में बहुत अधिक होता है. इस रोग के कारण भूमि की सतह के पास तने और जड़ पर गहरे भूरे से काले रंग के धब्बे बन जाते हैं. सूखे भाग पर काली फफूंद दिखाई देती है और बाद में रोगग्रस्त तना गलने से पौधा सूख जाता है. रोगग्रस्त पौधों को यदि उखाड़ा जाए तो जड़ें आमतौर पर टूटकर भूमि में ही रह जाती हैं. इस रोग का प्रकोप बुआई के 10 दिनों से लेकर 50 दिनों के अंतराल तक अधिक होता है. इस रोग के चलते फसल पूरी तरह से नष्ट हो जाती है.
खेत में पिछले मौसम के संक्रमित फसल के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए. गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करके खुला छोड़ना चाहिए. मूंगफली की कॉलर रॉट रोग प्रतिरोधी किस्मों यथा आरजी-510 आदि का चयन करें. बीजों को बुआई से पूर्व 3 ग्राम थीरम 2 ग्राम मैन्कोजेब या 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने से इस रोग से काफी हद तक बचा जा सकता है.
इसके अलावा बुआई से 15-20 दिनों पूर्व 2.5 किग्रा ट्राइकोडर्मा पाउडर को 500 किग्रा गोबर की खाद में मिलाकर, बुआई के समय जमीन में मिला दें. इस रोग के प्रभावी रोकथाम के लिए कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत एवं थीरम 37.5 प्रतिशत (विटावेक्स पॉवर) का 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए. इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर तुरन्त मैन्कोजेब 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए अथवा कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति लीटर में घोलकर अधिक प्रभावित स्थान पर मिट्टी में ड्रेच कर सिंचाई करें.
यह मूंगफली का एक मुख्य रोग है. यह सभी क्षेत्रों में आमतौर पर देखने को मिलता है. यह रोग एक कवक (सर्कोस्पोरा) द्वारा होता है. इसका प्रकोप फसल उगने के 40 दिनों बाद दिखाई देना शुरू होता है. इस रोग में पत्तियों की ऊपरी सतह पर हल्के मटमैले भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. पत्ती की निचली बाहरी त्वचा की कोशिकायें समाप्त होने लगती हैं. ये धब्बे रूपरेखा में गोलाकार से अनियमित आकार के होते हैं एवं इनके चारों ओर पीला परिवेश होता है. इन धब्बों की ऊपरी सतह वाले क्षेत्र लाल भूरे से काले, जबकि निचली सतह के क्षेत्र हल्के भूरे रंग के होते हैं.
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रोगी पौधों के अवशेषों को एकत्र करके नष्ट कर देना चाहिए. मूंगफली की फसल के साथ ग्वार या बाजरा की फसलें उगाएं. बुआई से पूर्व बीजों को 2-3 ग्राम थीरम या कैप्टॉन प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए. प्रारम्भिक लक्षण दिखने पर खड़ी फसल में 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम (आधा किग्रा प्रति हैक्टेयर) या 0.3 प्रतिशत मैन्कोजेब (1.5 किग्रा प्रति हैक्टेयर) का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें. इसे 10-15 दिनों के अंतराल पर दोबारा दोहराएं. यह अत्यधिक प्रभावी होगा.
यह मूंगफली का एक विषाणुजनित रोग है. इस रोग के कारण पौधा गुच्छे के रूप में दिखने लगता है. इससे पौधे की बढ़वार रुक जाती है. इस रोग की अधिक आक्रामक अवस्था में जगह-जगह तथा बाद में पूरा खेत ही खाली हो जाता है.
उचित समय पर (जून के प्रथम पखवाड़े में) बुआई करने से इस रोग का प्रकोप कम होता है. रोगग्रसित क्षेत्र में बाजरे की बुआई 100 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से करें व 15 दिनों बाद बाजरे को पलटकर मूंगफली की बुआई करें. इससे इस रोग में 90 प्रतिशत की कमी (जल्दी व समय पर बुआई होने की स्थिति में) आंकी गई है. इसके अलावा, बुआई के समय ब्लाइटॉक्स 50 प्रतिशत डस्ट को 10 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से डालने पर रोग कम लगता है.
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