इस साल खरीफ सीजन के बुवाई के आंकड़े बताते हैं कि देश का किसान अब बाजार की नब्ज को ध्यान में रखकर अपनी फसलों का चुनाव कर रहा है. इस साल खरीफ सीजन की बुवाई के आंकड़े एक बड़ी और दिलचस्प कहानी बयां कर रहे हैं. कृषि मंत्रालय और किसान कल्याण विभाग के अनुसार, देश में कुल बुवाई का रकबा तो बढ़ा है, लेकिन फसलों के चुनाव में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है. किसानों ने उन फसलों को हाथों-हाथ लिया है जिनसे उन्हें पिछले साल अच्छा मुनाफा मिला, जबकि घाटा देने वाली फसलों से उन्होंने दूरी बना ली है. यह बदलाव मक्का-ईंधन वाली फसल जिससे कि इथेनॉल बनाकर पेट्रोल में मिश्रित किया जाता है और सोयाबीन खाने के तेल वाली फसल के आंकड़ों में साफ नजर आता है.
पिछले साल बाजार से मिले अच्छे संकेतों का असर इस साल मक्के की बुवाई पर साफ दिख रहा है. खरीफ सीजन में मक्के का रकबा 10.51 फीसदी बढ़कर 91.89 लाख हेक्टेयर पर पहुंच गया है, जबकि पिछले साल यह 83.15 लाख हेक्टेयर था. दरअसल, इथेनॉल उत्पादन के लिए मक्के की लगातार बढ़ती मांग ने इसकी कीमतों को स्थिर और लाभकारी बना दिया है. किसानों को खुले बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के बराबर या उससे भी ऊंचा भाव मिल रहा है, जिसने मक्के की खेती को एक भरोसेमंद और मुनाफे वाला विकल्प बना दिया है. पेट्रोल में 20% इथेनॉल मिश्रण के लक्ष्य ने मक्के को किसानों के लिए एक बहुत फायदेमंद फसल बना दिया है. इथेनॉल बनाने वाली कई कंपनियां सीधे किसानों से मक्का खरीद रही हैं, जिससे इसकी मांग काफी बढ़ गई है. आज देश में बनने वाले कुल इथेनॉल में लगभग 40 फीसदी योगदान मक्के का ही है. इसी वजह से किसानों को अपनी उपज का स्थिर और लाभकारी मूल्य मिल रहा है, जिससे उनकी आय में बढ़ोतरी हो रही है.
वहीं दूसरी तरफ, तिलहन फसलों की बुवाई में भारी गिरावट आई है. कुल तिलहन का रकबा पिछले साल के 182.43 लाख हेक्टेयर के मुकाबले घटकर 175.61 लाख हेक्टेयर रह गया है. सबसे बड़ा झटका सोयाबीन को लगा है, जिसकी बुवाई 124.24 लाख हेक्टेयर से घटकर 119.51 लाख हेक्टेयर पर आ गई है. इसकी वजह पिछले साल हुआ भारी आर्थिक नुकसान है. सरकार ने सोयाबीन का MSP ₹4892 प्रति क्विंटल तय किया था, लेकिन महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के किसानों को अपनी फसल बाजार में ₹3200 से ₹4000 प्रति क्विंटल के औने-पौने दाम पर बेचनी पड़ी. MSP से ₹1000-₹1500 प्रति क्विंटल कम दाम मिलने की यही नाराजगी इस साल घटी हुई बुवाई के रूप में सामने आई है. जबकि भारत खाद्य तेलों के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है. देश अपनी घरेलू जरूरतों का लगभग 57% आयात करता है. इस आयात निर्भरता को कम करने के लिए सरकार भले ही किसानों को तिलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बेहतर दाम न मिलने के कारण किसान इस खेती से दूर जा रहे हैं."
यह चलन सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है. एक तरफ भारत खाने के तेल का बड़ा आयातक है और सरकार तिलहन उत्पादन बढ़ाकर आत्मनिर्भर बनना चाहती है. वहीं दूसरी ओर, केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने चावल का रकबा घटाकर दलहन-तिलहन को बढ़ाने के लिए 'माइनस 5 और प्लस 10' का फॉर्मूला दिया था. इसका मतलब है कि चावल का रकबा 50 लाख हेक्टेयर घटाकर, धान का उत्पादन 100 लाख टन तक बढ़ाना और धान की खाली हुई जमीन पर दलहन और तिलहन की खेती को प्रोत्साहित किया जा सके. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि किसान इसके उल्ट चल रहे हैं. तिलहन की बुवाई घटने के साथ-साथ धान की बुवाई में 12.12% का जबरदस्त उछाल आया है. धान का रकबा पिछले साल के 325.36 लाख हेक्टेयर के मुकाबले बढ़कर 364.80 लाख हेक्टेयर हो गया है.
किसानों के फसल चुनने का पैटर्न बाजार में मिलने वाले दाम और उसकी स्थिरता पर निर्भर कर रहा है. धान और मक्का जैसी फसलें इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि इनके दाम स्थिर रहते हैं. धान के लिए एक मजबूत MSP खरीद प्रणाली है और इथेनॉल में इसके उपयोग से बाजार भाव अच्छा मिलता है. इसी तरह, मक्के का इथेनॉल और पोल्ट्री उद्योग जैसे कई क्षेत्रों में इस्तेमाल होने से किसानों को लाभकारी मूल्य मिल जाता है. इसके ठीक विपरीत, सरकारी मिशन के तहत आने वाली तिलहनी फसलों से किसानों का मोहभंग हुआ है, जिसका मुख्य कारण कीमतों की अस्थिरता है. इसी का नतीजा है कि तिलहन का कुल रकबा पिछले साल के 182.43 लाख हेक्टेयर से घटकर इस साल 175.61 लाख हेक्टेयर रह गया है. वहीं, सरकार की दूसरी मिशन फसल, दालों की स्थिति भी मिली-जुली है. दालों का कुल रकबा लगभग स्थिर रहते हुए 106.52 लाख हेक्टेयर से मामूली बढ़कर 106.68 लाख हेक्टेयर हो गया है. लेकिन, इसमें चिंता की बात यह है कि मुख्य दलहनी फसल अरहर (तूर) की बुवाई में 2.02 लाख हेक्टेयर की भारी कमी आई है.
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