खेती के साथ-साथ एक या एक से अधिक पशुधन रखने की परंपरा बहुत पुरानी है. बड़े और मध्यम किसान बड़े पशु पालने में रुचि रखते हैं, लेकिन भूमिहीन, सीमान्त और लघु किसान अधिकतर बकरी पालते हैं. इन सीमित संसाधनों वाले ग्रामीणों के जीवन को गुजारने और खाद्य सुरक्षा में बकरी की भूमिका महत्वपूर्ण है. कम बारिश और कम उपजाऊ जमीन में तुलनात्मक रूप से बकरी पालन करना अधिक लाभदायक होता है. ऐसा विशेषज्ञ सलाह देते हैं. सरकार बकरी पालन के लिए मदद भी कर रही है. हालांकि, अधिकांश बकरी पालकों के पास बकरी के बच्चों के पैदा होने की तारीख आदि का लिखित नहीं होता है. इस कारण बकरियां खरीदते समय उनकी उम्र का सही आकलन दन्त विन्यास द्वारा किया जाता है.
बकरियों के निचले जबड़े में 8 आगे के दांत होते हैं. बकरी की आयु के अनुसार दन्त विन्यास में परिवर्तन होता जाता है. लगभग 4 वर्ष की आयु तक इनके सभी दांत आ जाते हैं. इसके बाद आगे के दांतों का हिलना व टूटना शुरू हो जाता है. बूढ़ी बकरियों में दांत निकल जाते हैं तथा उनकी चारण पशु के रूप में उपयोगिता भी लगभग समाप्त हो जाती है. वयस्क बकरी में कम से कम एक स्थायी दंत-युग्म होता है.
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आमतौर पर, स्वस्थ बकरियां 11 से 12 साल जीती हैं. भारतीय नस्ल की बकरी की उम्र 7 से 9 साल होती है और अरबी नस्ल की बकरियां 10 से 12 साल जीती हैं.
भारतीय ग्रामीण अंचल में उचित पशु चिकित्सा सुविधाओं और कार्यक्रमों के अभाव में, बकरियां विशेषकर उनके बच्चों में असामान्य मृत्युदर है. बकरी समूहों में अधिकांश मृत्यु दर, संक्रामक, परजीवी अथवा पोषण संबंधित रोगों के कारण होती है. संक्रामक रोग, जीवाणु, विषाणु माइकोप्लाज्मा, प्रोटोजोआ और फंफूदी जनित होते हैं. कई बार रोग कारक स्वस्थ पशु शरीर में ही रहता है, लेकिन पोषण या अन्य वजहों से यह रोग जनक बन जाता है.
यह अत्यधिक संक्रामक व घातक विषाणु जनित रोग है, विशेषकर नवजात शिशुओं में इस रोग का प्रकोप व मृत्यु दर काफी ज्यादा है. इस रोग से करीब 80-90 प्रतिशत बकरियां ग्रसित हो जाती हैं व उनमें 40-70 प्रतिशत तक बकरियों की मृत्यु हो जाती है. इस बीमारी की मुख्य पहचान के रूप में तेज बुखार, दस्त, आंख व नाक से पानी आना, न्यूमोनिया व मुंह में छाले पड़ जाना है. इस रोग का उपचार सफल नहीं है. रोगों का निदान किया जाए तो बकरी पालन मुनाफे का सौदा है.
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