प्रतीकात्मक फोटो.डेयरी साइंटिस्ट के मुताबिक गधी के दूध की वैल्यू बहुत है. सिर्फ कॉस्मेटिक आइटम के लिहाज से ही नहीं, पीने के लिए भी बहुत फायदेमंद बताया गया है. लेकिन इस वक्त असल मुद्दा ये है कि एक बार फिर गधी के दूध को लेकर सोशल मीडिया में चर्चा शुरू हो गई है. और ये मुद्दा जुड़ा है बाबा रामदेव से. सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे एक वीडियो में बाबा रामदेव गधी का दूध निकालते हुए और फिर दूध पीते हुए भी दिखाया गया है. रामदेव वीडियो में गधी के दूध को बहुत ही स्वादिष्ट बता रहे हैं. वहीं वीडियो में रामदेव के साथ खड़ा एक व्यक्ति गधी के दूध की मेडिशनल वैल्यू भी बता रहा है.
और इस बीच रामदेव बार-बार चम्मच से दूध को पी रहे हैं. ये कोई पहला मौका नहीं है जब किसी ने सार्वजनित तौर पर गधी के दूध के बारे में इस तरह से खुलकर बात की हो. इससे पहले कई बार सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान पूर्व केन्द्रीय मंत्री और पशु प्रेमी मेनका गांधी ने खुद गधी के दूध की तारीफों के पुल बांधे हैं. उन्होंने तो यहां तक बताया है कि वो खुद गधी के दूध से बने साबुन से नहाती हैं.
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गधे की पहचान बोझा ढोने वाले पशु के रूप में बन चुकी हैं. लेकिन ट्रांसपोर्ट के दूसरे साधनों का ज्यादा इस्तेमाल होने के चलते गधों की संख्या अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है. गधों को खत्म होने से बचाने और उसके दूध की मेडिशनल वैल्यू का फायदा उठाने के लिए उसे फ्यूचर मिल्क में शामिल करने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. अश्व अनुसंधान केन्द्र, हिसार (हरियाणा) के डायरेक्टर का कहना है कि हमने इस मामले में FSSAI को लाइसेंस के लिए पत्र लिखा है. हम चाहते हैं कि गधी के दूध को फूड आइटम में शामिल किया जाए. अगर उत्पादन की बात करें तो दिनभर में एक गधी डेढ़ लीटर तक दूध देती है.
FSSAI से अनुमति मिलते ही हम इस रिसर्च पर काम शुरू कर देंगे कि दूध को कहां-कहां इस्तेमाल किया जा सकता है. क्योंकि दूध पीने के शौकीन ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं जिन्हें गाय-भैंस के दूध से एलर्जी होती है. ज्यादातर लोग गाय-भैंस का दूध आसानी से पचा नहीं पाते हैं या फिर और दूसरी तरह की परेशानी होने लगती है. अगर गधी के दूध की बात करें तो इसे गाय-भैंस के दूध से बेहतर माना गया है. इतना ही नहीं छोटे बच्चों के लिए तो यह मां के दूध जैसा है. इसमे वसा की मात्रा सिर्फ एक फीसद तक ही होती है. जबकि गाय-भैंस और मां के दूध में वसा की मात्रा तीन से छह फीसद तक होती है.
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घोड़ों, खच्चर और गधों पर रिसर्च करने वाले संस्थान एनईआरसी के डायरेक्टर का कहना है कि बोझा ढोने के काम आने वाले गधों की जगह अब छोटे-बड़े वाहनों ने ले ली. इसी के चलते लोगों ने गधों को पालना या तो बंद कर दिया या फिर कम कर दिया. पशुगणना के मुताबिक साल 2012 में 3.20 लाख गधे थे, जबकि 2019 में इनकी संख्या सिर्फ 1.20 लाख ही बची है.
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