हमारे देश में संक्रामक रोगों के कारण हर वर्ष बड़ी संख्या में पशुओं की मृत्यु हो जाती है. जो बीमारी का शिकार होकर बच जाते हैं, उनकी दूध उत्पादन क्षमता कम हो जाती है. कई बार तो पशु बीमार होते हैं और पशुपालक समझ नहीं पाते हैं, बाद में उन्हें पता चलता है तब तक बीमारी बढ़ गई होती है.
इसकी वजह से कई पशुपालकों को आर्थिक रूप से नुकसान भी उठाना पड़ता है. जबकि खेती के साथ-साथ पशुपालन उसकी आजीविका का महत्वपूर्ण साधन है. ऐसे में पशुपालक कुछ बातों का ध्यान रखकर नुकसान से बच सकते हैं. इसके लिए उनमें जागरूकता होनी चाहिए.
पशु विशेषज्ञों का कहना है कि प्रमुख संक्रामक बीमारियों के उपचार की अपेक्षा टीकाकरण सबसे सस्ता एवं कारगर उपाय है. रोग हो जाने पर बीमार पशु को अलग रखना चाहिए. उपचार में देरी नहीं करनी चाहिए. रोग ग्रसित पशुओं को धुंआ नहीं देना चाहिए. संक्रमित पशुओं को खुले स्थान पर रखना चाहिए. जिससे कि दूसरे पशुओं में संक्रमण न फैले
वहीं भेड़ और बकरियों में भी अनेक प्रकार के रोग होते हैं, जिसके कारण पशुपालक को आर्थिक हानि होती है. कई बार अन्य रोगग्रस्त पशुओं से भी समुदाय में रोग फैल जाता है. ऐसे में पशुपालक साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें तथा भेड़-बकरियों के पोषण में कमी न होने दें.
एक ही स्थान पर अधिक संख्या में भेड़-बकरियों को चरने से न केवल घास समाप्त होती है बल्कि उनके मल-मूत्र से चारागाह भी दूषित हो जाता है. जिसके कारण परजीवियों का संक्रमण बढ़ जाता है जो दस्त और अन्य रोगों को जन्म देते हैं. चरने वाली भेड़-बकरियों में रोग के लक्षण जानने के लिए हर सुबह एक बार निरीक्षण अवश्य करना चाहिए.
पशु की गति, चाल, व्यवहार तथा हाव भाव में परिर्वतन आना.
चारा न खाना, जुगाली न करना तथा अन्य पशुओं से अलग रहना.
दुग्ध उत्पादन में गिरावट आना.
कान तथा गर्दन नीचे करके खड़े रहना.
सुस्त रहना, बाल खडे, त्वचा का सूखापन तथा लचीला न होना.
शारीरिक तापक्रम, नाड़ी गति एवं श्वास गति में परिर्वतन होना.
आँख, नाँक, व मुँह से द्रव्यों का बहना.
अधिक पतला अथवा कड़ा गोबर होना.
आँखों से कीचड़ आना.
मद चक्र समय पर न आना.
लंगड़ा कर चलना .
पशुओं के प्रमुख संक्रामक रोगों में गला घोंटू (एचएस), खुरपका-मुंहपका रोग (एफएमडी), लंगड़ी (ब्लैक क्वार्टर) और तिल्ली या बागी रोग शामिल हैं. इन संक्रामक रोगों को नजरअंदाज करना पशुपालन करने वालों को भारी पड़ सकता है.
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