प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की शुरुआत किसानों के फायदे के लिए हुई थी. लेकिन, इसका असली लाभ बीमा कंपनियां उठा रही हैं. इन्होंने पिछले छह साल में 40112 करोड़ रुपये की कमाई की है. हर साल 6685 करोड़ रुपये के आसपास. जहां तक किसानों को मदद मिलने वाली बात है तो इसे राजस्थान के बाड़मेर से समझा जा सकता है, जो कृषि राज्यमंत्री कैलाश चौधरी का क्षेत्र है. जहां पर किसानों को फसल खराब होने पर बीमा कंपनियों ने कहीं सिर्फ 20 तो कहीं 100 और 200 रुपये का क्लेम दिया. विवाद बढ़ने पर कृषि मंत्रालय में बैठक बुलाई गई और कंपनियों पर दबाव बनाकर क्लेम की रकम बढ़वा दी गई.
ऐसा ही महाराष्ट्र के कई जिलों में हुआ था. हिंगोली जिले के किसानों को एक से दो रुपये का मिला क्लेम देशभर के अखबारों की सुर्खियां बन गया. ऐसे ही मामले इसके बाद महाराष्ट्र के दूसरे जिलों से भी सामने आए. मामले के तूल पकड़ने के बाद कंपनियों ने लीपापोती करने के लिए किसानों के खातों में क्लेम की रकम दोबारा डाली. इसके बाद वहां यह नियम बना दिया गया कि किसानों को न्यूनतम 1000 रुपये का क्लेम दिया जाएगा. अगर बीमा कंपनियों की तरफ से क्लेम की राशि 1000 रुपये से कम दी जाती है, तो राज्य सरकार शेष राशि का भुगतान करेगी.
किसान क्लेम करते हैं. लेकिन, उन्हें आसानी से मुआवजा नहीं मिलता. हर क्षेत्र में कोई नेता कैलाश चौधरी नहीं है, जो आनन-फानन में कृषि मंत्रालय में बैठक बुलवा लेगा और अपने क्षेत्र के किसानों को न्याय दिलवा देगा. क्लेम मिलने का एक नमूना देखिए. साल 2021-22 में 8610 करोड़ रुपये के क्लेम रिपोर्ट किए गए और 7557.7 का भुगतान किया गया. जबकि 2020-21 में 19261.3 करोड़ के दावे रिपोर्ट हुए और भुगतान हुआ सिर्फ 17931.6 करोड़ का. इसी तरह 2019-20 में 27628.9 करोड़ के रिपोर्ट किए दावों के विपरीत 26413.2 करोड़ ही भुगतान हुआ.
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किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट कहते हैं कि फसल बीमा योजना में स्ट्रक्चरल फॉल्ट है. इसमें धन किसानों और टैक्सपेयर्स का है, तंत्र सरकार का और लाभ कंपनियों का हो रहा है. फसल बीमा की पॉलिसी ऐसी बनाई गई है कि बीमा करने वाली कंपनियां बेलगाम हैं और किसान उनकी शर्तों के आगे विवश हैं. इसे बनाते वक्त एक भी किसान नेता से मदद नहीं ली गई.
केंद्रीय कृषि मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक छह साल पहले जब योजना शुरू हुई थी. तब से बीमा कंपनियों को कुल 170127.6 करोड़ रुपये का प्रीमियम मिला है. इसके बदले किसानों को 130015.2 करोड़ रुपये का क्लेम मिला है. ऐसे में फायदे में कौन है? केंद्र, राज्य और किसानों ने मिलकर बीमा कंपनियों को छह साल में जितना प्रीमियम दिया है. उतने में सरकारें खुद मुआवजा बांट सकती थीं. किसानों को प्रीमियम भी नहीं देना होता और उसके बाद 15000 करोड़ रुपये सरकार के खजाने में बच भी जाते.
पंजाब, बिहार, गुजरात, झारखंड, मेघालय, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल पीएम फसल बीमा योजना में शामिल नहीं है. कई राज्य फसल बीमा प्रीमियम के बोझ से परेशान हैं. कुछ निकलना चाहते हैं. लेकिन, सियासी मजबूरियों की वजह से इससे बंधे हुए हैं. बहरहाल, इस योजना में शामिल न होने वाले सूबों को लगता है कि बीमा कंपनियां प्रीमियम का पैसा बहुत लेती हैं. जबकि किसानों पूरा क्लेम नहीं देतीं. इससे राज्य का न सिर्फ आर्थिक नुकसान होता है बल्कि किसान नाराज हो जाते हैं. इससे राजनीतिक तौर पर चुनौती बढ़ती है.
साल 2020 में मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान ने किसानों के एक कार्यक्रम में कहा था, "बीमा कंपनी खेल खेलती रहती है. खुद सोचिए कि क्या कोई कंपनी घाटे में बीमा करेगी? अगर वो प्रीमियम लेंगे 4000 करोड़ तो देंगे 3000 करोड़. इसलिए अब हम खुद मुआवजा देंगे. दो लेगेंगे तो दो और 10 लगेंगे तो 10 देंगे. काहे की कंपनी. आधी रकम नुकसान पर तुरंत दे देंगे और आधी नुकसान का आकलन करने के बाद. प्रधानमंत्री से मिलकर इसकी अनुमति लूंगा." ऐसे बयान से जाहिर है कि राज्यों में इन कंपनियों की मनमानी के खिलाफ गुस्सा है लेकिन हर सूबे की अपनी कुछ मजबूरियां हैं, जिनकी वजह से ऐसे बयानों के बाद भी कोई बदलाव नहीं होता.
रामपाल जाट का कहना है कि जिन किसानों ने खेती के लिए किसान क्रेडिट कार्ड के जरिए लोन लिया है. उनके अकाउंट से बीमा का पैसा कट जा रहा है. नियम बनाया जाना चाहिए कि किसान जब आवेदन करेंगे तब बीमा होगा. लेकिन, नियम यह है कि केसीसी धारक किसान को खुद बैंक जाकर आवेदन देना होगा कि उसे बीमा नहीं चाहिए. तब जाकर उसके अकाउंट से पैसा नहीं कटेगा. वरना ऑटोमेटिक बीमा हो जाएगा. ऐसे में तमाम किसानों को इसकी जानकारी नहीं होती और बिना उनकी कंसेंट के प्रीमियम काट लिया जाता है.
दूसरी बड़ी मनमानी यह है कि बीमा इंडीविजुअल होता है और क्लेम समूह में आकलन के हिसाब से मिलता है. कुछ फसलों में पटवार मंडल तो कुछ में गांव को यूनिट माना जाता है. जबकि हर खेत में नुकसान का अलग-अलग आकलन होना चाहिए. जब हर किसान अपना प्रीमियम दे रहा है तो उसके खेत को ही यूनिट माना जाना चाहिए.
बीमा कंपनियों का किसी भी जिले और ब्लॉक में ऑफिस तक नहीं है. फसल खराब होने पर सर्वे का काम पटवारी या लेखपाल करते हैं. यानी सरकारी कर्मचारी. ऊपर से योजना का प्रचार भी सरकार ही कर रही है. यानी पूरा सरकारी तंत्र बीमा कंपनियों को फायदा कमवाने में जुटा हुआ है. किसान जितना क्लेम करता है या जितना उसे नुकसान होता है उतना मुआवजा कभी नहीं मिलता.
एक-दो रुपये का क्लेम देने वाली कंपनियों को सरकार दंडित कर सकती है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं करती? ये कंपनियां दो दिन में दुरुस्त हो जाएंगी, बस योजना का ड्राफ्ट फिर से बने और उसमें किसान प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए. योजना किसानों के फेवर में बने न कि कंपनियों के. अभी तो पूरी योजना कंपनियों के फेवर में है. जिससे उन्होंने लूट मचा रखी है.
जाट का कहना है कि कृषि मंत्री फसल बीमा को लेकर साफ तौर पर गलत बोलते हैं. वो हमेशा प्रीमियम सिर्फ किसानों के हिस्से का बताते हैं, जिससे क्लेम अधिक लगने लगता है. देश में ऐसा प्रचार होता है कि किसानों ने 25 हजार करोड़ दिया और उन्हें सवा लाख करोड़ का क्लेम मिल गया. जबकि राज्य और केंद्र द्वारा योजना में दिया गया प्रीमियम भी पैसा ही होता है. वो पैसा भी टैक्सपेयर्स से आया है न कि आसमान से. पूरे प्रीमियम को मिलाया जाए तो साफ पता चलता है कि योजना की मलाई तो कंपनियां खा रही हैं. लेकिन मंत्री जी प्रीमियम बताएंगे सिर्फ किसानों का.
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष पुष्पेंद्र सिंह का कहना है कि योजना को लेकर भले ही सरकार की मंशा ठीक हो. लेकिन, फसल बीमा कंपनियों की मंशा तो ठीक नहीं है. किसान जितना क्लेम कर रहे हैं उसमें से वो भारी कटौती कर रही हैं. इंश्योरेंस कंपनियों व किसानों के बीच राज्य सरकार का राजस्व विभाग है. किसान की फसल खराब होने के बाद राजस्व विभाग के कर्मचारी ही रिपोर्ट बनाते हैं, तो फिर फायदा निजी कंपनी को क्यों मिले. सरकार ही खुद मुआवजा दे.
सिंह का कहना है कि हर राज्य अपनी बीमा योजना बनाए. उसमें केंद्र मदद दे. जब फसल खराब हो तो कृषि और राजस्व विभाग के अधिकारी संबंधित गांवों के सरपंचों और कृषि विज्ञान केंद्र के लोगों के साथ मिलकर सर्वे करें और मुआवजा दिलवाएं. बीमा कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा जाए. क्योंकि हमें छह साल में यह तो पता ही चल गया कि जितना पैसा राज्य, केंद्र और किसान मिलकर प्रीमियम के तौर पर कंपनियों को दे रहे हैं उससे कम में ही काम चल जाएगा. सरकार ऐसी व्यवस्था कर सकती है कि किसानों को प्रीमियम ही न देना पड़े.
केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के मुताबिक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है. यह राज्यों के साथ-साथ किसानों के लिए भी स्वैच्छिक है. राज्य अपने जोखिम और वित्तीय पहलुओं को ध्यान में रखते हुए योजना की सदस्यता लेने के लिए स्वतंत्र हैं. व्यापक आपदाओं में किसानों द्वारा दावा सूचना की आवश्कता नहीं है.
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