Guna Parliamentary Seat पर राजमाता विजयाराजे सिंधिया से लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया तक, दो अपवादों को छोड़कर कांग्रेस, जनसंघ और फिर भाजपा के टिकट पर राजघराने का व्यक्ति ही सांसद बनता रहा. एक बार किसी कारणवश जब माधवराव सिंधिया ने गुना से चुनाव नहीं लड़ा, तब उनकी जगह उनके करीबी महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा को गुना की जनता ने सिंधिया के प्रतिनिधि के तौर पर अपना सांसद चुना था. यह परंपरा 2019 में टूटी जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेहद करीबी केपी यादव ने राजघराने से बगावत कर बतौर BJP Candidate सिंधिया को सवा लाख वोट से हरा दिया. हालत यह हुई कि 2020 में सिंधिया को एमपी में कांग्रेस की सरकार गिरवा कर भाजपा का दामन थामना पड़ा. अब 2024 में वह भाजपा के टिकट पर गुना संसदीय सीट से उम्मीदवार हैं. हालांकि यादव बहुल इस सीट पर केपी यादव का टिकट कटने से पिछड़े वर्गों में खासी नाराजगी देखी जा रही है.
गुना संसदीय सीट के दायरे में 8 विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं. इनमें गुना, बमोरी, अशोकनगर, मुंगावली, चंदेरी, शिवपुरी, कोलारस और पिछोर हैं. साल 1952 से 2019 तक हुए 16 लोकसभा चुनाव में राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहले कांग्रेस, फिर जनसंघ और बाद में भाजपा से सांसद बनीं. उनके बाद राजमाता के पुत्र माधवराव भी जनसंघ और फिर कांग्रेस के टिकट पर गुना से सांसद बने.
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इस बार के चुनाव में गुना सीट पर हालात में क्रांतिकारी बदलाव यह आया है कि ज्योतिरादित्य पहली बार इस सीट से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं. वहीं, कांग्रेस ने यादव बहुल इस सीट पर राव यादवेंद्र सिंह को टिकट देकर सिंधिया को उन्हीं के अंदाज में जवाब देने की कोशिश की है. कुल मिलाकर गुना में इस बार का चुनाव जातिगत समीकरणों में उलझ गया है. पिछले चुनाव में 'ग्वालियर के महाराज' को गुना के एक सामान्य व्यक्ति द्वारा पटखनी देने के बाद, पिछड़ी जातियों के मतदाता खासे उत्साह में हैं.
इस बार चुनावी चर्चा पुरजोर गर्म है कि गुना में पिछड़े वर्ग के एक सामान्य से व्यक्ति ने 4 बार से सांसद बन रहे ग्वालियर के उस महाराज को हराया, जिसे कम से कम गुना में हराने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. ऐसे में गुना के लोगों के गले से यह बात नीचे नहीं उतर रही है कि साम्राज्यवादी सोच और Dynastic Politics की धुर विरोधी भाजपा ने केपी का टिकट क्यों काटा. जबकि गुना की जनता द्वारा एक बार नकारे जाने के बाद ज्योतिरादित्य को भाजपा ने उनकी जन्मभूमि ग्वालियर से चुनाव नहीं लड़वाया. जनता के बदले सुर को समझते हुए कांग्रेस ने राव यादवेंद्र सिंह यादव काे सिंधिया के खिलाफ उतारा है.
गुना के चुनाव में इस बार 'राष्ट्रवाद बनाम राजतंत्र' का मुद्दा भी खूब जोर पकड़ रहा है. यादव, गूजर, लोध और जाटव बहुल इस सीट पर लोग कह रहे हैं कि भाजपा जिस राष्ट्रवाद की वकालत करती है, गुना में, राजतंत्र की कीमत पर उसे दरकिनार करके ही केपी यादव का टिकट काटा है. पिछली जीत से उत्साहित केपी यादव भी ऊपरी तौर पर सिंधिया के साथ दिख रहे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि वह भी, बिना किसी ठोस कारण के टिकट कटने से मन ही मन नाराज है. जनता की इस नब्ज को भी टटोलते हुए ही कांग्रेस ने राव यादवेंद्र सिंह पर दांव चला है.
दरअसल राव यादवेंद्र सिंह, भाजपा के कद्दावर नेता रहे दिवंगत राव देशराज सिंह यादव के बेटे हैं. सिंधिया के भाजपा में आने के बाद ही यादवेंद्र ने कांग्रेस का दामन थामा था. अब दलित और पिछड़ी जातियों की बहुलता वाली गुना सीट पर सिंधिया का क्रेज इन जातियों में 2019 के बाद से कम हुआ है. इसकी मिसाल गत विधानसभा चुनाव बना है. साल 2018 के Assembly Election में सिंधिया समर्थक विधायक पर्याप्त संख्या में जीते थे, इनकी बदौलत ही उन्होंने बगावत करके एमपी में 18 महीने बाद कांग्रेस की सरकार गिरा दी थी. इस बगावत की भूमिका 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में सिंधिया की हार के साथ ही तैयार हो गई थी. लोगों में यह संदेश भी फैलाया गया कि इस हार के बाद से सिंधिया गुना वालों से नाराज हैं. इस नाराजगी का खामियाजा उन्हें भाजपा में जाने के बाद 2023 के विधानसभा चुनाव में जनता की नाराजगी के रूप में झेलना पड़ा, जब उनके समर्थक विधायकों को हार का मुंह देखना पड़ा.
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माना जा रहा है कि गुना लोकसभा सीट पर लोध बहुल पिछोर विधानसभा सीट और यादव एवं गूजर बहुल अशोकनगर, कोलारस तथा शिवपुरी विधानसभा क्षेत्रों में पिछड़ी जातियां लामबंद हो गई हैं. इतना ही नहीं, लोध जाति से ताल्लुक रखने वाली नेता उमा भारती की भाजपा में गई उपेक्षा से लोध मतदाता पहले से ही नाराज थे. इस प्रकार पिछड़ी जातियों और दलित समाज में जाटवों की कांग्रेस के प्रति आपसी समझ बनाने की कोशिशें भी सिंधिया गुट को परेशान कर सकती है.
अब भाजपा हाईकमान ने इन सभी अदावतों को दूर करने के लिए सीएम मोहन यादव को गुना संसदीय सीट की जिम्मेदारी सौंपी है. इस लिहाज से सीएम मोहन यादव के लिए भी गुना के चुनाव में भाजपा को जिताना अग्निपरीक्षा साबित हो रहा है. फिलहाल, सत्ता पक्ष से संबद्ध होने के कारण सिंधिया का फौरी तौर पर चुनाव में पलड़ा भारी जरूर दिख रहा है, लेकिन अपनों के भितरघात का भय भगवा ब्रिगेड को हर पल सता रहा है.