चुनाव के दौरान या चुनाव के बाद, पहले सस्पेंस और फिर अचंभित करने वाले फैसले करना ही, भाजपा के मौजूदा नेतृत्व की पहचान बन चुकी है. सोमवार को इसकी बानगी एमपी में फिर से देखने को मिली. पार्टी ने 3 दिसंबर को चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद, अव्वल तो सीएम की ताजपोशी को लेकर जबरदस्त सस्पेंस बनाए रखा, जो नाम चर्चा में थे, उन्हें भोपाल से दिल्ली तक खूब दौड़ाया, सीएम फेस बने कद्दावर नेताओं को मंत्री और सांसद पद से इस्तीफा दिला कर विधायक बनाया और फिर 8 दिन के इंतजार के बाद एक ऐसे व्यक्ति को सीएम बना दिया, जिसका नाम चर्चाओं में दूर दूर तक नहीं था. गनीमत है कि छत्तीसगढ़ में जिन विष्णुदेव साय को मुख्यमंत्री बनाया गया, कम से कम उनका नाम दावेदारों की फेहरिस्त में निचले पायदान पर जरूर था. एमपी में भाजपा की प्रयोगधर्मिता यहीं नहीं रुकी, बल्कि उपमुख्यमंत्री पद के लिए जो दो नाम चुने गए वे भी पूरी तरह से Out of Race ही हैं. पार्टी ने राज्य के पूर्व वित्त मंत्री जगदीश देवड़ा और रीवा से विधायक चुने गए पूर्व मंत्री राजेन्द्र शुक्ला को डिप्टी सीएम बनाया है.
एमपी के चुनाव में कामगारों से लेकर किसानों तक, सभी वर्गों की नाराजगी साफ दिख रही थी, मगर 'मामा शिवराज' की लाडली योजनाओं से खुश बहनों की खुशी, तमाम वर्गों की नाराजगी पर भारी पड़ी. इसके बावजूद सीएम का पद 'मामा' की जगह मोहन यादव को सौंपने का फैसला, कम से कम सूबे की महिलाओं को पचाना भारी पड़ा.
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जानकारों की मानें तो, सीएम और डिप्टी सीएम के पद पर चुने गए तीनों नाम एमपी के नवनिर्वाचित विधायक दल की नैसर्गिक पसंद होने के बजाय पार्टी नेतृत्व का ही चयन हैं. ऐसे में शिवराज जैसे अनुभव के धनी नेताओं के सामने महज 3 बार के विधायक मोहन यादव के लिए, बतौर सीएम आगे की राह बेहद चुनौती भरी रहेगी.
उनकी पहली परीक्षा, चंद महीनों बाद होने जा रहे लोकसभा चुनाव में होगी, जब उनके सामने पिछले लोकसभा चुनाव का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती रहेगी. गौरतलब है कि 2019 के आम चुनाव में भाजपा ने एमपी की 29 में से 28 सीटें जीती थीं. हाल ही में विधानसभा चुनाव में पार्टी की अप्रत्याशित जीत के बाद से ही शिवराज मामा ने राज्य का दौरा शुरू कर अगले आम चुनाव में सभी 29 सीटें जिताकर पीएम मोदी काे तोहफा देने के अभियान का आगाज कर दिया है. शिवराज की इस मुहिम से नवनियुक्त सीएम मोहन यादव पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनना स्वाभाविक है. इसके अलावा सीएम पद की रेस में जिन नेताओं को पछाड़ कर मोहन यादव सिरमौर बने हैं, उनकी तुलना में उनके पास सरकार और संगठन से जुड़ा अनुभव भी बहुत कम है. ऐसे में यह सहज सवाल उठना लाजमी है कि 'क्या जनता के दिल में मामा की जगह ले पाएंगे मोहन' ?
एमपी में भाजपा की भावी सरकार के चेहरों का चयन होने के बाद एक बड़ा सवाल सीएम पद के उन दावेदारों के सियासी भविष्य को लेकर भी उठाया जा रहा है, जिन्हें पार्टी नेतृत्व ने मंत्री और सांसद रहते विधायक का चुनाव लड़ाया. सवाल यह भी है कि केंद्रीय मंत्री रहे नरेंद्र सिंह तोमर को विधानसभा अध्यक्ष बनाने से पार्टी उन्हें कितना संतुष्ट कर पाएगी, इससे इतर प्रहलाद पटेल, रीति पाठक और कैलाश विजयवर्गीय क्या सिर्फ विधायक बने रहेंगे, या फिर मोहन सरकार में क्या इन नेताओं के लिए मंत्री बनना सहज होगा.
इसके अलावा अभी इस सवाल का जवाब भी मिलना बाकी है कि अगर भाजपा को अपने वरिष्ठ नेताओं को एमपी की सत्ता में अहम जिम्मेदारी नहीं देनी थी, तो इनसे मंत्री और सांसद पद से इस्तीफा क्यों दिलवाया ? साथ ही यह भी देखना दिलचस्प होगा कि केंद्रीय मंत्री और सांसद से विधायक बने अपने वरिष्ठ नेताओं को भाजपा किस रूप में समायोजित करेगी. यदि ऐसा नहीं होता है, तो महज 8 दिनों तक सत्ता के सपने देखने वाले, एमपी भाजपा के ये कद्दावर नेता क्या पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता ही बने रहेंगे या अपने सियासी भविष्य की कोई अन्य राह भी चुनेंगे.
कुल मिलाकर एमपी में चुनावी रण का भले ही पटाक्षेप हो गया हो, लेकिन सोमवार को भोपाल के घटनाक्रम से निकले संदेश का असर राजस्थान तक जरूर पहुंचा होगा, जहां भाजपा नेतृत्व की सबसे कठिन परीक्षा होना अभी बाकी है.