गेहूं भारत की प्रमुख खाद्य फसल है. इसके साथ ही यह देश की खाद्य सुरक्षा का आधार भी है. कृषि वैज्ञानिकों ने आधुनिक तरीके से गेहूं की खेती को उन्नत और वैज्ञानिक रूप दिया है. इससे गेहूं के उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है. मौजूदा समय में हमारे पास न केवल गेहूं की उन्नत किस्में उपलब्ध हैं, बल्कि फसल को विभिन्न रोगों से बचाने के लिए रोगरोधी किस्में भी उपलब्ध हैं. आज पूरे देश में गेहूं को कई बीमारियों से बचाने और फसल की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए कृषि वौज्ञानिक भी कई तरह का प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए फसल सुधार कार्यक्रमों द्वारा समय-समय पर दी जाने वाली बीमारियों की जानकारी, पहचान, कारण और प्रबंधन के तरीकों को जानने, समझने और जानकारी को किसानों तक पहुंचाने तक की जरूरत है. इस कड़ी में आज हम बात करेंगे गेहूं में लगने वाले सेहुं रोग, उसकी रोकथाम और कौन सी दवाइयों का प्रयोग करना चाहिए.
इस रोग के प्रभाव से पौधे की पत्तियां मुड़ जाती हैं. दाने की जगह बालियां फूल जाती हैं. बालियों पर गोंद जैसा चिपचिपा पदार्थ पाया जाता है. बालियों पर पीले भूरे रंग की संरचना बन जाती है. संक्रमित बालियां अन्य बालियों की तुलना में अपेक्षाकृत छोटी होती हैं और लंबे समय तक हरी रहती हैं. संक्रमित पौधे छोटे रह जाते हैं.
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यह रोग निमेटोड के कारण होता है. इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां मुड़ जाती हैं और सिकुड़ जाती हैं. इस रोग की वजह से अधिकांश पौधे बौने रह जाते हैं और उनमें स्वस्थ पौधों की तुलना में अधिक शाखाएं निकलती हैं. रोगग्रस्त बालियां छोटी और खोखली होती हैं और उनमें काली गांठें बन जाती हैं. इसमें गेहूं के दाने की जगह काली इलायची के दाने जैसे बीज बनते हैं. जिससे किसानों को काफी नुकसान होता है.
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जब इस रोग के धब्बे दिखाई दें तो पत्तियों पर 0.1 प्रतिशत प्रोपिकोनाजोल (टिल्ट 25 ईसी) का एक या दो बार छिड़काव करें. यह पुकिनिया रिकॉन्डिटा ट्रिटिकी नामक कवक के कारण होता है. इस रोग की पहचान यह है कि शुरू में इस रोग के लक्षण नारंगी रंग के सुईनुमा बिंदु होते हैं जो बेतरतीब क्रम में होते हैं. ये पत्तियों की ऊपरी सतह पर उभरते हैं, जो बाद में अधिक घने होकर पूरी पत्ती और डंठल पर फैल जाते हैं. रोगग्रस्त पत्तियां जल्दी सूख जाती हैं, जिससे प्रकाश संश्लेषण भी कम हो जाता है और दाना हल्का हो जाता है. जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, पत्तियों की निचली सतह पर इन धब्बों का रंग काला हो जाता है और इसके बाद रोग आगे नहीं फैलता.