
अक्सर जब भी दिल्ली की हवा जहरीली होती है, तो सबसे पहले उंगली पंजाब और हरियाणा के किसानों पर उठती है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि दिसंबर के महीने में, जब प्रदूषण अपने चरम पर होता है, तब पराली का योगदान लगभग 'जीरो' हो जाता है? केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी CPCB और CSE की रिपोर्टें बताती हैं कि दिसंबर तक खेतों में आग लगने की घटनाएं लगभग खत्म हो जाती हैं. इसके बावजूद दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स AQI 400 से 600 के बीच बना रहता है.
नासा के वैज्ञानिकों और IIT कानपुर के अध्ययन भी यही कहते हैं कि पूरे साल के औसत में पराली का हिस्सा मात्र 10 से 13 प्रतिशत है. इसका मतलब साफ है कि पराली तो सिर्फ कुछ हफ्तों का 'विलेन' है, असली विलेन तो साल भर हमारे बीच ही रहते हैं. अगर पराली जिम्मेदार नहीं है, तो फिर दिसंबर में दम क्यों घुट रहा है?
आंकड़ों के मुताबिक, दिल्ली के प्रदूषण में सबसे बड़ा हाथ गाड़ियों से निकलने वाले धुएं का है, जो अकेले 30% जहर घोलता है. इसके बाद नंबर आता है खुले में कचरा और बायोमास जलाने का 23%, जो ठंडी रातों में गर्मी के लिए जलाया जाता है. धूल उड़ाते निर्माण कार्य 10% और फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं 5-7% भी इस आग में घी डालने का काम करते हैं. ये वो कारक हैं जो 365 दिन मौजूद रहते हैं, लेकिन सर्दियों में इनका असर जानलेवा हो जाता है क्योंकि हम इन्हें नियंत्रित करने के बजाय केवल पराली पर चर्चा करते रह जाते हैं.
दिल्ली की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यह चारों तरफ से जमीन से घिरी है. सर्दियों में यहां एक खास वैज्ञानिक स्थिति बनती है जिसे 'टेंपरेचर इनवर्जन' कहते हैं. सामान्य दिनों में गर्म हवा प्रदूषकों को लेकर ऊपर उड़ जाती है, लेकिन दिसंबर में ठंडी हवा एक भारी चादर की तरह जमीन के पास बैठ जाती है. यह ठंडी और स्थिर हवा धुएं और धूल के कणों को ऊपर नहीं जाने देती, जिससे पूरी दिल्ली एक 'गैस चैंबर' बन जाती है. हवा की गति सुस्त होने के कारण धूल के कण वातावरण में ही फंस जाते हैं और एक दमघोंटू स्मॉग यानी धुआं कोहरा की मोटी परत बना लेते हैं.
वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाली बात यह भी बताई है कि शाम के समय जलने वाली आग दोपहर की तुलना में कहीं अधिक घातक होती है. रात के समय वायुमंडल की सबसे निचली परत बहुत पतली हो जाती है. ऐसे में शाम को निकलने वाला धुआं—चाहे वह कचरा जलाने से हो या पराली से—ऊपर जाने के बजाय जमीन के करीब ही जमा हो जाता है. यही कारण है कि रात भर में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ जाता है कि सुबह उठते ही लोगों को आंखों में जलन और सांस लेने में तकलीफ महसूस होने लगती है. यह समय और मौसम का ऐसा घातक तालमेल है जो हमारी सेहत पर सीधा हमला करता है.
दशकों से NCR इलाके इस धुंध की चादर में लिपटे हुए हैं. सिर्फ कुछ हफ्तों की पराली को कोसने से समस्या हल नहीं होगी. अब हमें अपनी रणनीति बदलनी होगी. गाड़ियों के उत्सर्जन को कम करने के लिए सार्वजनिक परिवहन को मजबूत करना, कचरा प्रबंधन को दुरुस्त करना और निर्माण कार्यों में धूल नियंत्रण के सख्त नियमों की जरूरत है. जब तक हम स्थानीय स्तर पर फैलने वाले 90 प्रतिशत प्रदूषण पर लगाम नहीं लगाएंगे, तब तक दिल्ली और उत्तर भारत के फेफड़ों को राहत मिलना नामुमकिन है. यह समय एक-दूसरे पर दोष मढ़ने का नहीं, बल्कि मिलकर ठोस कदम उठाने का है. दिसंबर में जब पराली का धुआं खत्म हो जाता है, फिर भी दिल्ली की हवा जहरीली रहती है.