वेस्टर्न डिस्टर्ब के बाद दिल्ली में इन दिनों मौसम साफ और सुहाना है. मसलन, सांस लेने में बेहद ही राहत है. दीपावली के समय दिल्ली की वायु गुणवत्ता श्रीनगर की तरह हो गई है, लेकिन कुछ दिन पूर्व तक दिल्ली प्रदूषण की वजह से गैस चैंबर बनी हुई थी. आलम ये था कि दिल्ली में सांस लेने में भी दिक्कत होने लगी थी. माना जाता रहा है कि दिल्ली में बिगड़ी इस आबोहवा के पीछे पराली में आग लगाने से उठने वाला धुआं बड़ा जिम्मेदार है और था.
इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट का रूख सख्त है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट पंजाब में पराली जलाने की घटनाओं को रोकने के लिए पंजाब सरकार को फटकार तक लगा चुका है. तो वहीं सुप्रीम कोर्ट से लेकर पंजाब सरकार पराली जलाने से उठने वाले धुएं के लिए किसानों को जिम्मेदार बता रहे हैं, लेकिन सच ये है कि पराली जलाने की घटनाओं के लिए किसान जिम्मेदार नहीं है.
इस पूरे मामले की दोषी सरकारी नीतियां हैं और इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से जिस तरीके की अफसोसजनक टिप्पणियां किसानों के लिए हुई हैं. उस देख कर ये लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को संभवत इस मामले में गुमराह किया जा रहा है.
किसान तक पराली में आग लगाने के विचार से सहमत नहीं है. पराली लगाने से खेतों को नुकसान होने के साथ ही प्रदूषण भी फैलता है. किसान तक पराली में आग लगाने की घटनाओं पर जल्द से जल्द रोक लगाने की मांग करता है. साथ ही किसान तक अपने अनुभव के आधार पर ये भी समझता है कि किसान भी पराली में आग लगाना नहीं चाहते हैं. किसान भी समझते हैं कि पराली में आग लगाने से मिट्टी को कितना नुकसान पहुंचता है, लेकिन मौजूदा वक्त में जिस तरीके से सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकारों और आम जन के बीच पराली में आग लगाने और प्रदूषण के लिए किसानों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. उसका किसान तक पुरजोर विरोध करता है. किसान तक सुप्रीम कोर्ट से लेकर केंद्र सरकार, राज्य सरकार और आम जन को इस मामले की जड़ तक जाने की गुजारिश करता है, जिसकी कोशिश किसान तक लगातार करता आ रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने पराली में आग लगाने की घटनाओं को लेकर गंंभीर है. मौजूदा साल में पंजाब से पराली जलाने के सबसे अधिक मामले सामने आए हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट पंजाब सरकार को तलब कर चुका है. 7 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के सामने पंजाब सरकार ने पराली के मामले को लेकर हलफनामा दायर किया था. जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में धान की खेती पर बैन लगाने की तरफ इशारा करते हुए इसकी जगह मोटे अनाजों की खेती करने का सुझाव दिया है. साथ ही इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने के मामले में रोकथाम और गिरते भूजल स्तर पर नियंत्रण के लिए पंजाब में धान पर किसानों को मिल रही MSP पर रोक लगाने की संभावनाओं पर भी चर्चा की है.
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 10 नवंबर को फिर से सुनवाई की, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में पराली जलाने की घटनाओं पर फिर से सख्त रूख अपनाया है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार माननीय अदालत इस मामले में 'कैरट और स्टिक' पॉलिसी अपनाने को कहा है. जिसमें पराली ना जलाने वाले और दूसरी किस्मों को अपनाने वाले किसानों को पुरस्कार देने और पराली जलाने वाले किसानों को दंड देने की बात कही है. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा है कि ऐसे किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करना कोई समाधान नहीं है. ऐसे किसानों की फार्म सब्सिडी एक साल तक के लिए रोकनी चाहिए. साथ ही कोर्ट ने एक साल तक ऐसे किसानों की संपत्ति कुर्क करने का सुझाव भी दिया है. जिस तय करने की स्वतंत्रता राज्य सरकारों को दी गई है.
पराली के धुएं की प्रदूषण में हिस्सेदारी है, ये सच है, लेकिन इस पूरी कहानी में जिस तरीके से किसानों को कसूरवार ठहराया जा रहा है. किसान तक उसका पुरजोर विरोध करता है. कभी भूखे देश को अन्न भंडार बनाने वाले और देश की अर्थव्यवस्था के पहिए के प्रमुख आधार किसानों के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने जो कहा है, वह बेहद ही अफसोसजनक है.
इस मामले में किसानों को जिस तरीके से गुनाहगार बताया जा रहा है वह शुद्ध तौर पर नौकरशाही, सरकारों की असफलता और मी लॉर्ड की कम खेती समझ का नतीजा लग रहा है, जबकि हकीकत ये है की सरकारी नीतियों के मकड़जाल ने किसानों के दोनों हाथ और पैर बांधे हुए हैं और किसानों को वक्त से लड़ने के लिए छोड़ दिया गया है. नतीजतन किसान पराली जलाने को मजबूर हैं, और सरकारी नीतियों से उपजी किसानों की इस मजबूरी ने उन्हें पराली जलाने के प्रकरण का दोषी बना दिया है. आइए समझते हैं कि किसानों को विलेन बना रही इस पूरी व्यवस्था ने कैसे किसानों को पराली जलाने के लिए मजबूर किया
भारत की हरित क्रांति की गाथा देश के प्रत्येक नागरिक को याद है, लेकिन अधिकांश लोग इस गाथा के मुख्य नायकों को भूल रहे हैं. थोड़ा सा दिमाग पर जोर डालिए तो समझ आएगा कि हरित क्रांति के असली नायक देशभर के किसान ही हैं, तो वहीं पंजाब, हरियाणा के किसानों की इसमें महत्ती भूमिका रही. क्याेंकि पंजाब और हरियाणा हरित क्रांति के प्रयोगों का केंद्र रहे.
नतीजतन किसानों की मेहनत ने इस भूखे देश को अन्न भंडार में बदल दिया. देश के कृषि वैज्ञानिकों के नेतृत्व में शुरू हुई हरित क्रांति ने भारत का एग्री कल्चर सिस्टम ही बदल दिया. मसलन, एक साल के अंदर किसानों को दो की जगह तीन फसलें लेने के लिए प्रेरित किया तो वहीं पंजाब में धान की कई किस्मों की इंट्री हुई. हालांकि आज भी धान यानी चावल पंजाब के लोगों का मुख्य आहार नहीं बन पाया है, लेकिन पंजाब के किसान देश की खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खेतों में धान बो रहे हैं. तब से लेकर अब तक ये वह प्रयास हैं, जिन्हें पंजाब, हरियाणा और वेस्टर्न यूपी के किसानों ने नीति निर्माताओं के साथ कंधे से कंधे मिलाकर सफल बनाया. नतीजतन, भूखा देश आज दुनिया के कई देशों की भूख मिटा रहा है.
हालांकि ये सच है कि हरित क्रांति से पराली में बढ़ोतरी हुई. लेकिन ये भी सच है कि हरित क्रांति से चार दशक बाद तक पराली प्रदूषण का कारण नहीं थी. तो वहीं ये भी शाश्वत सत्य है कि मौजूदा पराली संकट हरित क्रांति और सरकारी नीतियों का ही परिणाम है, जिसमें किसानों को सिर्फ शतरंज की बिसात में मोहरों की तरह ट्रीट किया जा रहा है.
पराली में आग लगाने से हो रहा प्रदूषण बेशक हरित क्रांति का ही साइड इफेक्ट है, लेकिन इसकी शुरुआत 1990 के दशक से शुरू होती है, जब खेतों में मशीनों की एंट्री होती है. असल में 90 के दशक में कटाई के लिए कंबाइन हार्वेस्टर की एंट्री हुई, जिसने कटाई के काम को बेहद ही आसान बना दिया, लेकिन इस मशीन के साथ तब से लेकर अब तक ये समस्या है कि वह अनाज तो एक जगह एकत्रित कर लेती है, लेकिन पराली को खेत में फैला देती है. साथ ही ये मशीन पौधे को जमीन से थोड़ा ऊपर से काटती है. ऐसे में एक तो पराली पूरे खेत में फैल जाती है तो वहीं दूसरी तरफ कटाई के बाद फसलों का बड़ा निचला हिस्सा खेत में रह जाता है. अब यहीं से शुरू होती है पराली संकट की कहानी. जिसने मौजूदा वक्त ने विकराल रूप ले लिया है.
असल में खेतों में कंबाइन हार्वेस्टर की एंट्री के बाद भी किसानों ने पराली को समस्या नहीं बनने दिया, लेकिन मॉनसून के सिस्टम ने पंजाब और हरियाणा के किसानों को बेबस बना दिया. असल में 2009 तक पंजाब और हरियाणा में किसान मई में ही धान की खेती शुरू कर देते हैं. नतीजतन, सितंबर में ही धान की कटाई शुरू हो जाती थी और पराली उठाने या उसे मैनेज करने के लिए किसानों के पास पर्याप्त समय रहता था, लेकिन मई में धान की रोपाई शुरू करने के लिए किसानों को नलकूप चलाने की जरूरत पड़ती थी. एक आंकड़ा कहता है कि खरीफ सीजन में पंजाब में धान की रोपाई के लिए 15 लाख ट्यूबल चलते हैं. ऐसे में पंजाब में धान की रोपाई से भूजल स्तर नीचे जाने लगा.
इन हालातों में तकरीबन डेढ दशक पहले पंजाब सरकार और सुप्रीम कोर्ट गिरते भूजल स्तर को बचाने के लिए आगे आए. नतीजतन Punjab Preservation of Subsoil Water Act, 2009 लाया गया. ऐसा ही एक्ट हरियाणा में भी लाया गया, ये एक्ट दोनों राज्यों में धान की खेती को सरकारी नियंत्रण में लाता है. मसलन, पंजाब में तब से लेकर अब तक धान की खेती 15 से 20 जून के बाद शुरू होती है. सरकार की कोशिश रहती है कि पंजाब में मॉनसून पहुंचने के बाद पंजाब में धान की रोपाई हो और पंजाब में सबसे आखिर यानी जुलाई के पहले सप्ताह में मॉनसून पहुंचता है. यहीं से पंजाब में धान की खेती पिछड़ती है और पराली संकट के विकराल होने की शुरूआत होती है.
धान की रोपाई पिछड़ने का सीधा सा मतलब, दो फसलों के बीच कम होता फासला है. असल में सरकारी एक्ट के बाद अब जून के आखिरी में धान की खेती शुरू होती है तो जिसकी कटाई अक्टूबर में होती है. तो वहीं नवंबर से रबी सीजन यानी गेहूं की बुवाई का शुरू हो जाती है. ऐसे में किसानों के पास दूसरी फसल के लिए खेत तैयार करने को बेहद ही कम समय होता है. नतीजतन, किसानों को पराली मैनेजमेंट की जरूरत पड़ती है. इसके लिए किसानों को मजदूरों और मशीनों की जरूरत होती है. पंजाब समेत देश के कई राज्यों में खेतीहर मजदूरों की कमी किसी से छिपी नहीं है. जो एक महंगा सौदा भी है. वहीं पराली मैनेजमेंट के लिए पंजाब में खरीदी गई मशीनों के गड़बड़झाले समेत बेलर मशीनों की कमी की रिपोर्ट अखबारों में प्रमुखता से छप ही रही हैं.
सरकारी नीतियों की मकड़जाल में उलझा हुआ किसान मौजूदा वक्त में पराली जलाने को मजबूर है. वहीं माननीय सुप्रीम कोर्ट जिस तरीके से पराली जलाने वाले किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज कर उन्हें दंडित करने का सुझाव दे रहा है, उससे किसानों में उपजी निराशा देश के अंदर गेहूं संकट पैदा कर सकती है. इसे थोड़ा सा सिलसिलेवार समझना होगा. कृषि वैज्ञानिक ये मानते हैं कि नंवबर में तय समय के बाद बुवाई में हुई देरी गेहूं उत्पादन में कमी कर सकती है. तो वहीं पिछले सालों के अनुभव के आधार पर ये भी देखना होगा कि कैसे जलवायु परिवर्तन से 2022 मार्च में समय से पहले पड़ी गमी से गेहूं के दानों को पोषित नहीं होने दिया था और 2023 में अप्रैल में हुई बारिश ने खड़ी फसल को नुकसान पहुंचाया था. ऐसे में अगर किसान पराली मैनजमेंट की वजह से गेहूं की बुवाई में पिछड़ते हैं देश के कई माननीय की थाली से रोटी गायब हो सकती है.