खरीफ सीजन और मॉनसून एक सिक्के के दो पहलू की तरह हैं. मसलन, मॉनसून की बारिश ही खरीफ सीजन की फसलों का मुख्य आधार है. असल में मॉनसून में बेहतर बारिश ही खरीफ फसलों का भविष्य तय करती है, लेकिन इस बार माॅनसून की बिगड़ी चाल ने खरीफ सीजन की फसलों को संकट में डाल दिया है. नतीजतन, इस बार दिल्ली-एनसीआर को गंभीर पराली प्रदूषण का सामना करना पड़ सकता है. सीधे से कहें तो इस बार धान की फसलों पर मॉनसून की मार पड़ी है, जिससे किसानों की मुश्किलें बढ़ी हैं, तो वहीं धान पर मॉनसून की ये मार पराली प्रदूषण को दावत देती हुई दिखाई दे रही हैं. आइए... भविष्य के गर्भ में उलझी हुई इस पहेली को समझने की काेशिश करते हैं.
असल में खरीफ सीजन की मुख्य फसल धान है, जिसे मॉनसून सीजन की फसल कहा जाता है. मसलन, धान की खेती के लिए अधिक पानी की जरूरत होती है और मॉनसून की बारिश धान की फसल को ये खुराक उपलब्ध कराती है. लेकिन इस साल मॉनसून की बारिश का पैटर्न उलटबांसी करता हुआ दिखाई दे रहा है. मसलन एक तरफ कम बारिश की वजह से बिहार, झारखंड, पूर्वी यूपी, बंगाल समेत कई राज्यों में सूखे जैसे हालात बने हैं तो वहीं दूसरी तरफ मूसलाधार बारिश की वजह से पंजाब, हरियााणा, वेस्टर्न यूपी में बाढ़ जैसे हालात बने थे.
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कुल मिलाकर दोनों ही स्थिति में धान की फसल पर मॉनसून की मार पड़ी है. हालांकि सूखे का सामना कर रहे किसान अपनी सूखती धान की फसल को कृत्रिम सिंचाई से नई जान देने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन पंजाब, हरियाणा और वेस्टर्न यूपी के कई जिलों में आई बाढ़ से लाखों हेक्टेयर में लगी धान की फसल खराब हो गई है और किसानों के खेत खाली हैं.
धान पर मॉनसून की मार वाली कहानी के बाद पराली और प्रदूषण पर बात करना लाजमी बनता है. इस पूरे मामले को समझने के लिए दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के खराब हालातों पर चर्चा जरूरी है. असल में ठंड शुरू होते ही यानी खरीफ सीजन खत्म होते ही दिल्ली-एनसीआर की हवा में प्रदूषण घुलने लग जाता है, जिसमें दिल्ली-एनसीआर में चलने वाली गाड़ियों से निकलने वाला धुंआ अव्वल होता है, जो वायुमंडल में फैली नमी के साथ मिलकर दिल्ली की हवा को जहरीला बनाता है. तो वहीं इसी दौरान इस जहरीली हवा को पंजाब-हरियाणा में जलाए जा रही पराली से निकलने वाला धुंआ बेहद ही जहरीला बना देता है. नतीजतन, दिल्ली की हवा बेहद ही गंभीर श्रेणी में पहुंच जाती है और ये पैटर्न दिल्ली को दुनिया के प्रदूषण वाले शहरों के नक्शे में शीर्ष पर पहुंचता रहा है. तो वहीं प्रदूषण के इस विकराल रूप में आम आदमी को सांस लेने में भी मुश्किल होने लगती है.
इस पूरे मामले काे ठीक से समझने से पहले प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारी को भी जानना जरूरी है. असल में प्रत्येक साल 15 अक्टूबर से 15 फरवरी के समय को प्रदूषण के लिहाज से बेहद ही संवेदनशील माना जाता है, जिसमें 15 अक्टूबर से 15 नंवबर तक के समय होने वाले प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारी अधिक रहती है.
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के संस्थान सफर के मुताबिक 15 अक्टूबर से 15 नंवबर के बीच दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी अधिकतम 40 फीसदी तक दर्ज की जाती है. असल में ये ही समय धान की फसल की कटाई के बाद का होता है. मसलन, किसान इसी समय अगली फसल की तैयारी करते हुए पराली मैनेजमेंट पर काम करते हैं. नतीजतन पराली जलाने की घटनाएं बढ़ती हैं और पराली का धुंआ उड़ कर दिल्ली-एनसीआर पहुंचता है, जो दिल्ली के मौजूदा प्रदूषण के साथ मिलकर हवा को और अधिक प्रदूषित करता है.
मालूम हो कि ये ही समय दीपावाली का भी होता है, जिमसें वाहनों से निकलने वाले प्रदूषण और पराली के धुंए के साथ मिलकर पटाखाें का धुंआ वायु गुणवत्ता को खराब करता रहा है.
धान पर माॅनसून की मार, पराली और प्रदूषण की कहानी और दिल्ली के प्रदूषण में पराली के धुएं की हिस्सेदारी की कथा एक तरह का फ्लैशबैक है. इस साल पराली प्रदूषण की अधिक मार को समझने के लिए पंजाब और हरियाणा के तत्कालीन एग्रीकल्चर सिस्टम को समझना होगा. ये दोनों ही राज्य देश के प्रमुख चावल उत्पादक राज्य हैं, लेकिन बाढ़ की वजह से दोनों ही राज्याें के कई जिलाे में लाखों हेक्टेयर में लगी धान की फसल बर्बाद हुई है, जिससे किसानों के साथ ही सरकारों की मुश्किलें भी बढ़ी है, जिसकी एक बानगी ये है कि भारत सरकार को चावल एक्सपोर्ट पर बैन लगाना पड़ा है. तो वहीं पंजाब और हरियाणा सरकार किसानों को बाढ़ से बर्बाद हुए खेत में दोबारा धान की रोपाई करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं.
ऐसे में किसानों की तरफ से इन दिनों दोबारा धान की रोपाई की जा रही है. तो वहीं कई जगह धान की सीधी बिजाई की जा रही है. धान की दोबारा रोपाई और बिजाई कराने के पीछे का मुख्य उद्देश्य किसानों को किसानों के नुकसान को कम करने के साथ ही देख में चावल का भरपूर स्टाक सुनिश्चित रखना है, लेकिन ये व्यवस्था अधिक पराली प्रदूषण को दावत देते हुए दिख रही है.
किसानों के नुकसान को कम करने और देश में चावल का भरपूर स्टाक सुनिश्चित करने के लिए पंजाब और हरियाणा में दोबारा धान की रोपाई/बुवाई का पैटर्न सही है, लेकिन ये पैटर्न रबी फसल की तैयारियों पर भारी पड़ सकता है. नतीजतन रबी फसल की तैयारी के चलते किसानों को मजबूरी में पराली जलाना पड़ सकता है.
इस पूरे मामले को उदाहरण से समझने की काेशिश करते हैं. असल में अगस्त के पहले सप्ताह से पंजाब और हरियाणा में दोबारा रोपाई/बुवाई शुरू हुई है. माना जा रहा है कि बाढ़ का संकट झेल चुके किसानों ने दोबारा रोपाई/बुवाई के दौरान धान की सबसे कम अवधि वाली किस्में लगाई हैं, जो 90 से 120 दिन में पक कर तैयारी होती है. इस गणित के हिसाब से अनुमान लगाया जाए तो नंवबर के पहले सप्ताह के बाद से ही धान की कटाई शुरू होने की संभावनाएं, लेकिन ये ही समय रबी सीजन की फसलों का भी होता है.
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ऐसे में किसानों के पास रबी सीजन की फसलों के लिए खेत को तैयार करने का समय कम बचेगा. नतीजतन, किसानों के लिए पराली मैनजमेंट चुनौतिपूर्ण हो सकता है. विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर किसान पूसा डी कंपोजर से भी पराली को गलाने की कोशिश करते हैं तो उसमें भी 20 से 25 दिन का समय लग सकता है. नतीजतन, गेहूं की बुवाई पिछड़ जाएगी. ऐसे में विशेषज्ञ भी पराली जलने की घटनाओं के बढ़ने की तरफ इशारा कर रहे हैं.
इस मामले को लेकर पंजाब के मुकेरिया जिले के प्रगतिशील किसान राजेश सैनी कहते हैं कि उनके वहां पर बाढ़ से धान खराब नहीं हुआ है, लेकिन सतलुज की बेल्ट वाले क्षेत्र में बड़ी संख्या में धान की फसल बाढ़ की वजह से खराब हुई है. लंबे समय से पूसा डी कंपजोर से पराली मैनजमेंट कर रहे प्रगतिशील किसान राजेश सैनी कहते हैं कि बाढ़ संकट झेल चुके किसान दोबारा धान की रोपाई/बुवाई कर रहे हैं. साथ ही वह मानते हैं कि अब धान की रोपाई/बुवाई नवंबर में पराली प्रदूषण का संकट पैदा कर सकती है. वह कहते हैं कि इन हालातों में किसानों के पास पराली जलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा.