दक्षिण और मध्य कश्मीर का इलाका पूरे देश में बादाम की खेती के लिए प्रसिद्ध है. यहां की करेवा जमीन बादाम उत्पादन के लिए बेहद उपयुक्त मानी जाती है. इसी जमीन में पैदा हुआ बादाम देश-दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जाता है. मगर इस बादाम की खेती पर संकट मंडरा रहा है. यहां की बादाम की खेती लगातार सिमटती जा रही है क्योंकि किसानों को इसमें मेहनत अधिक और मुनाफा कम मिल रहा है. इस घटते लाभ की वजह से कभी बादाम की खेती करने वाले किसान सेब की ओर भाग रहे हैं. इससे घाटी की सबसे प्राचीन खेती-बादाम की बागवानी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.
कश्मीर घाटी की करेवा जमीनें, जो कभी गुलाबी-सफेद बादाम के फूलों से सराबोर रहती थीं, अब धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों और सेब के बागों में तब्दील हो रही हैं.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 2006–07 में कश्मीर में 16,374 हेक्टेयर में बादाम की खेती होती थी, जो 2019–20 तक घटकर मात्र 4,177 हेक्टेयर रह गई. इस दौरान उत्पादन भी 15,183 टन से घटकर 9,898 टन रह गया.
बडगाम के किसान अब्दुल मजीद कहते हैं, “पहले पूरी आजीविका बादाम पर निर्भर थी, लेकिन अब दाम और मुनाफा दोनों कम हैं. 1990 में 40 रुपये प्रति किलो बिकने वाला कठोर खोल वाला बादाम अब 130-150 रुपये में बिकता है, लेकिन लागत भी बहुत बढ़ चुकी है.”
कई किसानों ने या तो बादाम छोड़कर सेब की ओर रुख कर लिया है या फिर अपनी जमीन को आवासीय प्लॉट्स में बदल दिया है. यह बदलाव पारंपरिक फसल के लिए बड़ा खतरा बन गया है.
जम्मू-कश्मीर भारत के कुल बादाम उत्पादन का 90% से अधिक हिस्सा देता है. यहां के बादाम जैविक माने जाते हैं और स्वाद में विदेशी बादामों से बेहतर माने जाते हैं. ‘मखदूम’ और ‘वारिस’ जैसी सॉफ्ट शेल किस्में अब भी पसंद की जाती हैं, लेकिन इनका उत्पादन और प्रोसेसिंग चुनौती का काम हो गया है.
किसानों के पास उचित बाजार तक पहुंच नहीं है, न ही कोई समर्पित ड्राई फ्रूट मंडी. ब्रांडिंग और प्रोसेसिंग के अभाव में बादाम की क्वालिटी होते हुए भी सही दाम नहीं मिल पाते.
शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर तारिक रसील 'बिजनेसलाइन' से कहते हैं कि 'वारिस' और 'मखदूम' जैसी सॉफ्ट शेल किस्मों को बढ़ावा देने के प्रयास असफल रहे हैं. ये परंपरागत किस्मों की तुलना में 4–5 गुना कम उपज देती हैं और पक्षी क्षति और उच्च श्रम लागत की समस्या से ग्रस्त हैं.
कृषि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार की ओर से लगातार सहयोग, बाजार ढांचा और रोग-प्रतिरोधी उच्च उपज वाली किस्मों को नहीं अपनाया गया, तो कश्मीर में बादाम की खेती हमेशा के लिए समाप्त हो सकती है.