खलबली है... खलबली है...
हर खेत में, हर लैब में है खलबली...
यह 'विकास' है, या 'प्रसार' है,
या सरकार सच में किसानों के द्वार है!
खलबली है, खलबली है, हर तरफ है खलबली! आमिर खान की फिल्म `रंग दे बसंती` के इस गाने की आत्मा आजकल भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के गलियारों में घूम रही है. यूं कह सकते हैं कि जमकर विचरण कर रही है. बात ही कुछ ऐसी है. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जब ‘एक राष्ट्र, एक कृषि, एक टीम’ का मंत्र दिया यानी सीधी-सीधी कहा कि किसान और विज्ञान के बीच की खाई अब और नहीं चलेगी. इस अभियान का उद्देश्य है कि ICAR के वैज्ञानिक एक महीने तक खेतों में उतरें, किसानों से सीधे संवाद करें, तकनीक का ट्रांसफर लैब से लैंड तक करें और खेती को एक सशक्त, वैज्ञानिक दृष्टिकोण दें.
कृषि मंत्री का ‘मिशन रूट-टू-फार्म’ के अंतर्गत ICAR के वैज्ञानिकों को अगले एक महीने तक सीधे खेतों में उतरना होगा. यानी लैब की सफेद कोट वाली दुनिया से निकलकर ‘मिट्टी-पानी’ वाले असली मैदान में काम करना होगा. शिवराज का दावा है कि यह अभियान ‘किसान-वैज्ञानिक एकता’ की नई इबारत लिखेगा. लेकिन ICAR के 6000 वैज्ञानिकों के चेहरे पर अभी कई सवाल हैं.
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शिवराज का दावा है कि यह अभियान महज कागजी योजना नहीं, बल्कि एक ऐसा बीज बोने का दावा है. इससे खेती को वैज्ञानिक चेतना से हरियाली मिलेगी. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह बीज मौसम की मार झेल पाएगा या एवैंई ही हवा में उड़ जाएगा? आइए पहले जान लेते हैं यह पूरा अभियान है क्या जिसने वैज्ञानिकों के चेहरे पर हवाइयां उड़ा रखी हैं.
शिवराज सिंह चौहान ने 'एक राष्ट्र, एक कृषि, एक टीम' का मंत्र देकर इस अभियान को 29 मई से 12 जून 2025 तक देश के 723 जिलों में 65,000 से अधिक गांवों में चलाने की घोषणा की है. इसका मकसद है 'लैब टू लैंड' वैज्ञानिक शोध को सीधे खेतों तक ले जाना. इस अभियान के तहत ICAR के वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और अन्य विशेषज्ञ गांव-गांव जाकर किसानों से संवाद करेंगे. मृदा स्वास्थ्य कार्ड, ड्रोन तकनीक, धान की सीधी बुवाई (DSR), और प्राकृतिक खेती जैसी आधुनिक तकनीकों को बढ़ावा देना इसका मुख्य लक्ष्य है. शिवराज का दावा है कि यह अभियान खरीफ सीजन में ही परिणाम दिखाएगा, जिससे किसानों की आय बढ़ेगी और खेती उन्नत होगी।
पहली बार ऐसा हो रहा है कि ICAR के वैज्ञानिकों को अपनी प्रयोगशालाओं की ठंडी हवा छोड़कर खेतों की धूल भरी राहों पर उतरना पड़ रहा है. 30 दिनों तक 2,170 टीमें खेतों पर जाएंगी. प्रत्येक टीम में 4-5 वैज्ञानिक होंगे. यह टीम 1.30 करोड़ से अधिक किसानों से सीधे संवाद करेंगी. यह 'लैब टू लैंड' का मिशन है, लेकिन ICAR के 113 संस्थानों और 6,000 वैज्ञानिकों के बीच यह खबर किसी खेत में बम फटने जैसी है. वैज्ञानिक जो अब तक माइक्रोस्कोप और डेटा शीट्स के बीच जीते थे, अब किसानों के बीच जाकर सीधे मिट्टी, फसल, और मौसम की बात करेंगे.
ICAR के गलियारों में इस अभियान ने तूफान ला दिया है. 6,000 वैज्ञानिकों की सेना में उत्साह, उत्सुकता और निश्चित तौर पर थोड़ा-बहुत घबराहट का मिश्रण जरूर है. हालांकि इस अभियान के माध्यम से लैब में हो रहे शोध किसानों तक पहुंच सकते हैं. यह काम पहले प्रयोगशालाओं और पत्रिकाओं तक सीमित था, अब सीधे किसान और खेतों तक पहुंचेगा. मृदा स्वास्थ्य कार्ड और ड्रोन तकनीक किसानों की उत्पादकता बढ़ा सकते हैं.
वैसे तो लैब में विकसित तकनीक ग्रामीण परिस्थितियों में कितनी कारगर होंगी, यह चिंतन का विषय है. ड्रोन से कीटनाशक छिड़काव का मॉडल उपयोगी साबित हो सकता है लेकिन गांवों में बिजली और इंटरनेट की अनिश्चितता इसे लागू करने में बाधा बन सकती है. इन परिस्थितियों का भी आकलन हो जाएगा.
वैज्ञानिकों और किसानों के बीच संवाद की बाधा भी चिंता की लकीरें खींच रही है. किसानों की भाषा और उनकी व्यावहारिक समस्याओं को समझने में स्थानीय भाषा की कठिनाई आने की आशंका है. क्या किसान मृदा pH या वैज्ञानिक शब्दावली समझेंगे? उनका फोकस एरिया तो फसल में कीट और मौसम की समस्याओं पर तुरंत समाधान मांगने पर रहेगा.
समय की कमी भी एक बड़ी दिक्कत हो सकती है. जिससे वैज्ञानिकों को सामन्जस्य बिठाने में दिक्कत आने वाली है. 30 दिनों में 65,000 गांवों तक पहुंचना और 1.30 करोड़ किसानों से संवाद करना डिफिकल्ट डेडलाइन है. यह इतना टाइट शेड्यूल है कि प्रभावी संवाद और तकनीक प्रदर्शन के लिए समय कम पड़ सकता है.
यूं तो संसाधनों की कमी भी अभियान में बाधा बन सकती है. कई संस्थानों में संसाधनों का अभाव एक बड़ी समस्या है. हो सकता है वैज्ञानिकों के पास ड्रोन और अन्य उपकरण हों लेकिन गांवों में प्रदर्शन के लिए पर्याप्त बैटरी, तकनीकी स्टाफ और लॉजिस्टिक्स सपोर्ट होगा, यह एक विचारणीय बिंदु है. हालांकि दिक्कतों को एक तरफ रखकर विचार किया जाए तो इस अभियान से निश्चित तौर पर शोध को एक नई दिशा प्राप्त हो सकती है. इस अभियान से भविष्य के शोध के लिए प्रेरणा मिल सकती है. विषय मिल सकते हैं. किसानों की समस्याओं को करीब से समझकर उनके लिए अधिक प्रासंगिक शोध किया जा सकता है.
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यानी 'विकसित कृषि संकल्प अभियान' भारतीय खेती के लिए एक नया खेत तैयार कर रहा है, जहां वैज्ञानिक और किसान मिलकर हरियाली बो सकते हैं. शिवराज सिंह चौहान का यह दांव 'लैब टू लैंड' के मंत्र को साकार करने की दिशा में एक साहसिक कदम है. अगर यह अभियान सफल होता है, तो मृदा स्वास्थ्य कार्ड, ड्रोन तकनीक, और प्राकृतिक खेती जैसे नवाचार खेतों में क्रांति ला सकते हैं. लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं, संसाधनों की कमी, वैज्ञानिकों और किसानों के बीच संवाद की खाई, और जमीनी अमल की कठिन राह इस बीज के अंकुरण में बाधा बन सकती है.
ICAR के वैज्ञानिकों में खलबली तो है लेकिन यह खलबली उस मिट्टी की तरह है, जिसमें नया बीज बोया जाता है. अगर मौसम और सरकारी इच्छाशक्ति ने साथ दिया तो नई फसल लहलहा सकती है. अगर यह सिर्फ कागजी योजना बनकर रह गई, तो यह उम्मीद का यह बीज हवा में उड़ता दिखाई देगा. खेत तैयार है, वैज्ञानिक तैयार हैं, अब बस किसान और मौसम का इम्तिहान बाकी है. तो कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि फिलहाल ICAR के गलियारों में बस एक ही बात गूंज रही है कि कल तक लैब में पौधों को पेट्री डिश में उगाने वाले लोग अब खुद जाएंगे खेत, उगाएंगे पौधे! खलबली तो है लेकिन यह खलबली सकारात्मक रही तो हौसले और नई उम्मीद की फसल लहलहाएगी, जान लीजिए.