अमेज़ोन दुनिया का सबसे बड़ा ऊष्णकटिबंधीय वर्षावन है. इसे दुनिया का फेफड़ा भी कहा जाता है. हमारे पर्यावरण को संभालने में अमेज़ोन का महत्वपूर्ण योगदान है. ब्राज़ील से कोलम्बिया और पेरु से अन्य दक्षिण अमेरिकी देशों तक फैला यह जंगल न सिर्फ जैव विविधता में समृद्ध है, बल्कि बहुत सी आदिवासी जनजातियों का घर भी है. अफसोस कि विकास और अंधाधुंध खनन के चलते यहां का जंगल लगातार बर्बाद हो रहा है. और जंगल के घटने का सीधा असर पड़ता है यहां रहने वाली आदिवासी जनजातियों पर. यानोमामी ऐसी ही एक आदिवासी जनजाति है जो एक हज़ार साल से भी पहले से इस जंगल में रह रही है.
अपनी अस्मिता के लिए लड़ रही इस जनजाति के संघर्ष की शुरुआत हुई 1970 के दशक से जब इस क्षेत्र में सोने की खदानें खोजी गईं. इन खदानों तक जाने के लिए सरकारों ने एक लंबी सड़क भी बनवा दी. और इस तरह यानोमामी जनजाति बाहरी लोगों के संपर्क में आई जिन्होंने स्वर्ण खनन के लिए उनके प्राकृतिक संसाधनों का विनाश शुरू कर दिया. आज वेनज़ुएला और ब्राज़ील की सीमा पर स्थित कुल 200-300 गांव ही हैं जहां करीब 35,000 यानोमामी रहते हैं. वे आज भी अपने जीवन शैली, जंगल और संस्कृति को बचाए रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
इसी जनजाति को केंद्र में रख कर ब्राज़ील के निर्देशक लुइज़ बोलोंग्नेसी ने 2021 में बनाई एक खूबसूरत फिल्म ‘द लास्ट फॉरेस्ट’. फिल्म की खासियत यह है कि इसमें सारे ‘अभिनेता’ असल यानोमामी लोग ही हैं. जब बोलोंग्नेसी यानोमामी और स्वर्ण खदानों के लिए बाहरी लोगों के जंगल में दखल पर फिल्म बनाने के बारे में सोच रहे थे तो यानोमामी जनजाति के प्रमुख नेता दावी कोपेनावा ने सुझाया कि क्यों ना वे सिर्फ यानोमामी की दुनिया के बारे में ही फिल्म बनाएं! इस तरह से उनकी जीवन शैली, उनका जंगल और ज़मीन ज़्यादा हाइलाइट होगा और बाहरी अतिक्रमण अपने आप ही साबित हो जाएगा.
बोलोंग्नेसी को यह बात जंच गई. उन्होने डॉक्युमेंट्री और नाटक दोनों शैलियों का मिश्रण करते हुए पटकथा लिखी. पटकथा क्या थी, बस एक वृत्तान्त था, एक यानोमामी गांव का मुखिया तैयार हो रहा है, बाहरी, सरकारी लोगों से मिलने के लिए. वह बाहरी लोगों को समझाना चाहता है कि खनन और शहरीकरण से जंगल तो बर्बाद होगा ही, पानी में बढ़ते पारे की मातरा से पानी प्रदूषित होगा और जंगल में रहने वाले आदिवासियों का जीवन और संस्कृति नष्ट हो जाएगी.
गांव का मुखिया शमन भी है, यानी गांव का आध्यात्मिक नेता भी. बातचीत में कुछ किस्से आते हैं कि किस तरह यानोमामी जनजाति का जन्म हुआ और कैसे यानोमामी के लिए उनके सपने, मिथक और देवी-देवता उनके असल जीवन का ही एक विस्तार हैं. कुछ युवा यानोमामी शहरी जीवन के प्रति आकृष्ट भी हैं, लेकिन ये शमन उन्हें बताता है- “जंगल में ही तुम चैन से सो पाओगे”.
उसकी बातचीत में ही 1993 का ज़िक्र होता है जब स्वर्ण के लालची खननकर्ताओं ने करीब 16 यानोमामी लोगों को मार डाला था. फिर 70 का दशक भी याद दिलाया जाता है जब लोगों ने जंगल में सोने की खोज और खनन के लिए आना शुरू किया. किस तरह यानोमामी पुरखों ने सारी बीमारियों और बुराई को ज़मीन के नीचे दफ्न दिया था, लेकिन अब ज़मीन को खोदने से वे सभी बीमारियां बाहर निकल रही हैं. ये इस बात की तरफ इशारा करता है कि शहरी लोगों के संपर्क में आने के बाद ये आदिवासी जिनका कोई टीकाकरण या रोग प्रतिरक्षण का उपाय नहीं हुआ था, वे तपेदिक और अन्य संक्रामक रोगों से मारे गए थे.
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शहरी लोगों के साथ बैठक की तैयारी करते हुए शमन कहते हैं, “मैं वहां बढ़िया भोजन के साथ उत्सवपूर्ण मन से नहीं जाना चाहता. मैं उन्हें अपने सोचने-विचारने के तरीके सिखाना चाहता हूं. क्योंकि हम इस जंगल की अंतिम संतान हैं”. जल, जंगल और ज़मीन पर सरकार के द्वारा आदिवासियों को कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं. लिहाजा रोजाना हजारों पेड़ काटे जा रहे हैं, ज़मीन हथियाई जा रही है और खनन से पानी को प्रदूषित किया जा रहा है- यही यानोमामी शमन की चिंता का सबब है.
इस पूरी प्रक्रिया में फिल्म दिखाती है कि किस तरह यानोमामी लोग शिकार करते हैं, टोकरियां बनाते हैं, मछली पकड़ते हैं और टेपिओका की खेती भी करते हैं. यानोमामी महिलाएं पितृसत्तात्मक समाज में रहती हैं और उनका काम मुख्यतः बागवानी करना, बच्चे पालना और जूट की टोकरियां बनाना ही है. लेकिन वहां भी कुछ मजबूत किरदार की महिलाएं हैं. ऐसी ही एक महिला हैं एहुयाना यारा. दावी कोपेनवा नहीं चाहते थे कि उनकी जनजाति की कोई भी महिला इस फिल्म में काम करे लेकिन एहुयाना अड़ गईं. आखिरकार महिलाओं का नज़रिया, उनका जीवन भी तो दिखलाना चाहिए. दावी आखिरकार मान गए.
एहुयाना भी फिल्म में एक ऐसी स्त्री की भूमिका में हैं जिसका पति शिकार पर जाता है लेकिन लौटता नहीं. उसकी कहानी भी सपनों, मिथकों और रीति-रिवाजों को दर्शाती है, जो यानोमामी जनजाति का अभिन्न अंग हैं. फिल्म की शूटिंग 2019 में शुरू की गई थी. उस दौरान दावी ने निर्देशक बोलोंग्नेसी को आगाह किया कि कोई बड़ी महामारी आने वाली है. “क्योंकि हम उस ज़मीन को खोद रहे हैं और मिट्टी को हटा रहे हैं, जहां से उसे नहीं हटाना चाहिए”.
2020 में कोरोना के आक्रमण से पूरी दुनिया त्रस्त हो गई और शूटिंग का काम ठप्प हो गया. बोलोंग्नेसी ने 2022 में एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि वे इस भविष्यवाणी के सच होने पर हतप्रभ रह गए थे. “लेकिन यह भी एक वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रदूषण के कारण नयी-नयी बीमारियां और वाइरस पैदा हो रहे हैं”. उन्होने कहा.
2021 में फिल्म ‘द लास्ट फॉरेस्ट’ नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई और इसे देश-विदेशों में बहुत सराहा गया. यह कलात्मक रूप से एक प्रयोगात्मक फिल्म होते हुए भी बहुत खूबसूरत फिल्म है, दूसरे- यह पर्यावरण संरक्षण पर भाषणबाजी ना करते हुए एक स्पष्ट संदेश दे जाती है, और तीसरे- यह हमें आदिवासी जनजीवन के बारे में बताती है कि जंगल उनके लिए एक जीवंत अस्तित्व है. उसे खनिज पदार्थों या तथाकथित विकास कार्यों के लिए उजाड़ना मनुष्य जाति के अंत की शुरुआत ही है.
अपने सारगर्भित संदेश और कलात्मक चित्रण के लिए ‘द लास्ट फॉरेस्ट’ को बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में पैनोरमा आडियन्स अवार्ड से नवाजा गया. अन्य अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ ही फिल्म को साओ पाओलो असोसियशन ऑफ आर्ट क्रिटिक्स अवार्ड भी मिला. कुछेक जगहों पर यह फिल्म कन्नड कमर्शियल फिल्म ‘कांतारा’ की याद भी दिला जाती है. ‘कांतारा’ भी आदिवासियों के जंगल पर हक की ही कहानी कहती है. बहरहाल, ‘द लास्ट फॉरेस्ट’ ना सिर्फ यानोमामी जनजाति बल्कि दुनिया भर के जंगलों में बसे आदिवासियों की व्यथा बयान करती है और उस पर्यावरणीय संकट को भी सशक्त रूप से सामने लाती है जो इन जंगलों के विनाश के कारण पूरी दुनिया पर मंडरा रहा है.