रेगिस्तानी धूप से तपते राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के मंडल कस्बे में हर साल एक अनोखा मेला लगता है — गधा मेला, जहां ग्रामीण जीवन के इस शांत साथी को सम्मान और उत्सव के रंगों में सराहा जाता है.
दीपावली के अगले दिन, अन्नकूट और गोवर्धन पूजा के साथ आयोजित यह वार्षिक मेला वैशाख नंदन उत्सव के नाम से प्रसिद्ध है. इस दिन मंडल कस्बा रंगों, संगीत और परंपराओं से सराबोर हो उठता है. किसान, व्यापारी और परिवार दूर-दूर से यहां जुटते हैं — गधों की खरीद-फरोख्त करने और उन्हें सजाने-संवारने के लिए.
मेले की सबसे आकर्षक झलक है “गधा सुंदरता प्रतियोगिता” — जिसमें गधों को नहलाया, रंगा-रौंदा और फूलों की मालाओं से सजाया जाता है. नगर के मुख्य चौक पर पूजा होती है, जहां पुजारी गधों को गुड़ के टुकड़े खिलाकर उनका सम्मान करते हैं.
इसके बाद परंपरा के तहत पटाखे छोड़े जाते हैं और गधों की रेस (दौड़) शुरू होती है — जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है.
मंडल निवासी गोपाल कुम्हार बताते हैं कि यह परंपरा लगभग 70 वर्ष पुरानी है. पहले हर कुम्हार के घर में एक गधा होता था, जो रोज़गार और जीवन का हिस्सा था. अब भले ही जीवन-शैली बदल गई हो, पर परंपरा और सम्मान आज भी कायम है.
मेले के दौरान लोकगायक गधों की वफादारी पर लोकगीत गाते हैं, बच्चे सजाए गए गधों की गाड़ियों पर सवारी करते हैं और महिलाएं रंगीन साड़ियों में चाय की चुस्कियों के साथ पुराने किस्से साझा करती हैं. दिनभर के आयोजन के बाद रात में ग्रामीण बाजरे की रोटियां और सामूहिक भोजन करते हैं — यह सिर्फ गधों का नहीं, बल्कि ग्रामीण राजस्थान की साझी संस्कृति का भी उत्सव है.
भीलवाड़ा के प्रजापित समुदाय में गधों का विशेष महत्व है क्योंकि इससे ढुलाई का काम होता है. इससे प्रजापति समुदाय की कमाई बढ़ती है. यही वजह है कि वे गधों को केवल ढुलाई का साधन नहीं मानते बल्कि सम्मान का जरिया भी बताते हैं. इस सम्मान को प्रदर्शित करने के लिए वे गधों का उत्सव मनाते हैं.
भीलवाड़ा के प्रताप नगर इलाके में गधों को नहलाया जाता है, साफ किया जाता है और सजाया जाता है. चमकीले रंग से गधों को पेंट किया जाता है, माला पहनाई जाती है और शहर के बाजार में लाया जाता है. इसके बाद पुजारी पूजा का कार्यक्रम संपन्न करते हैं. गधों को गुड़ खिलाया जाता है. उनके पैरों के पास पटाखा फोड़ कर रेस कराई जाती है. इस उत्सव को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं.