Tiger Widows: बाघ ने उजाड़ा सिंदूर, अब उन्‍हीं के लिए जंगल बचाने में जुटीं हिम्‍मती महिलाएं 

Tiger Widows: बाघ ने उजाड़ा सिंदूर, अब उन्‍हीं के लिए जंगल बचाने में जुटीं हिम्‍मती महिलाएं 

इन महिलाओं को ‘बाघ विधवाएं’ कहा जाता है. समाज में उन्हें अक्सर दोषी ठहराया जाता है और ‘स्वामी खेजो’, यानी पति को खाने वाली, जैसे अपमानजनक शब्दों से पुकारा जाता है. इस सामाजिक कलंक के चलते उन्हें खेती, मछली पकड़ने और दूसरे पारंपरिक कामों से भी दूर कर दिया जाता है. कई मामलों में बाघ हमले जंगल में गैर-कानूनी एंट्री के दौरान होते हैं, जिससे ये महिलाएं सरकारी मुआवजे की हकदार भी नहीं बन पातीं.

क‍िसान तक
  • New Delhi ,
  • Dec 17, 2025,
  • Updated Dec 17, 2025, 2:50 PM IST

सुंदरबन में बाघ सिर्फ एक जंगली जानवर नहीं, बल्कि डर, नुकसान और दर्द की एक जीती-जागती हकीकत है. मालती मंडल के लिए यह दर्द निजी है. करीब दस साल पहले उनके पति मैंग्रोव के घने जंगलों के बीच छोटी नाव से मछली पकड़ने गए थे, तभी एक बाघ ने उन पर हमला कर दिया. वह लौटकर कभी घर नहीं आए. सुंदरबन के तटीय इलाकों में रहने वाले सैकड़ों परिवारों के लिए यह कहानी कोई अपवाद नहीं है, बल्कि रोजमर्रा की सच्चाई है. मालती जैसी कई और महिलाएं हैं जो अब इन्‍हीं बाघों के लिए घर बचाने में जुटी हैं. 

सुंदरबन में कुल कितने बाघ 

भारत और बांग्लादेश में फैला सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव जंगल है. यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट के रूप में पहचाने जाने वाले इस इलाके में ज्वार-भाटे वाली नदियां, कीचड़ से भरे मैदान और छोटे-बड़े द्वीपों का जाल है. अनुमान के मुताबिक बांग्लादेशी सुंदरबन में करीब 125 और भारतीय हिस्से में लगभग 88 बाघ हैं. लेकिन संरक्षणवादियों का कहना है कि जंगल कटने, इंसानी आबादी बढ़ने और संसाधनों की कमी ने इंसान-बाघ टकराव को और तेज कर दिया है.

सीएनएन ने कंजर्वेशन इंटरनेशनल के प्रोजेक्ट लीडर सौरव मल्होत्रा के हवाले से बताया है कि खाने के रिर्सोसेज को लेकर मुकाबला बढ़ गया है. मछली पकड़ने के लिए जंगल के अंदर जाने वाले पुरुष सबसे ज्यादा खतरे में रहते हैं. आधिकारिक आंकड़े सीमित हैं, लेकिन अनुमान है कि साल 2000 के बाद से इंसान-बाघ संघर्ष में करीब 300 लोग और 46 बाघ मारे जा चुके हैं. इन आंकड़ों से भी ज्यादा सच्चाई उन महिलाओं की संख्या में दिखती है, जो अपने पतियों को खोकर पीछे रह गईं.

क्‍यों नहीं मिल पाता मुआवजा 

इन महिलाओं को ‘बाघ विधवाएं’ कहा जाता है. समाज में उन्हें अक्सर दोषी ठहराया जाता है और ‘स्वामी खेजो’, यानी पति को खाने वाली, जैसे अपमानजनक शब्दों से पुकारा जाता है. इस सामाजिक कलंक के चलते उन्हें खेती, मछली पकड़ने और दूसरे पारंपरिक कामों से भी दूर कर दिया जाता है. कई मामलों में बाघ हमले जंगल में गैर-कानूनी एंट्री के दौरान होते हैं, जिससे ये महिलाएं सरकारी मुआवजे की हकदार भी नहीं बन पातीं. नतीजा यह कि उनके पास अपने और बच्चों के लिए आजीविका के बेहद सीमित साधन बचते हैं.

अब इसी दर्द से निकलकर एक नई कहानी गढ़ी जा रही है. सुंदरबन में शुरू हुई एक नई संरक्षण पहल इन बाघ विधवाओं को केंद्र में रखती है. मकसद सिर्फ उन्हें रोज़गार देना नहीं, बल्कि उन्हें समाज में सम्मान के साथ दोबारा खड़ा करना और उस पर्यावरण को बचाना है, जिस पर उनकी जिंदगी और बाघों का अस्तित्व टिका है.

झारखाली इलाके में मातला नदी के किनारे i-Behind The Ink (IBTI) से जुड़े 26 वर्षीय फेलो शाहिफ अली इस पहल को जमीन पर उतार रहे हैं. बाघ विधवाओं और स्थानीय महिलाओं के साथ मिलकर वह 100 हेक्टेयर मैंग्रोव जंगल को दोबारा खड़ा करने में जुटे हैं. लस्करपुर और विवेकानंद पल्ली गांवों के बीच इस हफ्ते 40 हेक्टेयर समुद्री किनारे पर एक लाख से ज्यादा मैंग्रोव पौधे लगाए जा रहे हैं.

6 महीनों में लगे देसी पौधे 

पिछले छह महीनों से महिलाओं द्वारा तैयार किए गए देसी मैंग्रोव पौधे अब तटबंध के सामने लगाए जा रहे हैं. इससे न सिर्फ जंगल दोबारा पनपेगा, बल्कि जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाले तेज और बार-बार के तूफानों से सुरक्षा की एक अतिरिक्त परत भी बनेगी. मैंग्रोव का यह जंगल बढ़ते खारेपन के खिलाफ भी ढाल का काम करेगा, जो मिट्टी, फसलों और मछलियों के लिए बड़ा खतरा बन चुका है. उम्मीद है कि समय के साथ मछलियों की आबादी फिर से बढ़ेगी. इससे इंसानों और बाघों दोनों के लिए भोजन के संसाधन बेहतर होंगे और टकराव कम होगा. 

फिलहाल इस प्रोजेक्ट में कुल 59 महिलाएं जुड़ी हैं, जिनमें मालती मंडल समेत सात बाघ विधवाएं शामिल हैं. महीने के अंत तक 20 और विधवाएं इस पहल से जुड़ने वाली हैं, जबकि 75 से ज्यादा महिलाओं ने इसमें रुचि दिखाई है. अली के मुताबिक चुनौती यह है कि महिलाएं दूर-दराज के इलाकों में रहती हैं और सुरक्षित यात्रा के साधन सीमित हैं. साथ ही, वर्षों से उपेक्षित रही महिलाओं का भरोसा जीतने में वक्त लगता है.

रोजाना मिलती कितनी मजदूरी 

इन महिलाओं को रोज 300 रुपये की मजदूरी मिलती है. यह रकम भले छोटी लगे, लेकिन अली कहते हैं कि यही पैसा इलाज करवाने और बीमारी को नज़रअंदाज़ करने, या बच्चों को भूखा रखने और भरपेट खिलाने के बीच का फर्क बन जाता है. यह प्रयास कंजर्वेशन इंटरनेशनल की ‘माउंटेन टू मैंग्रोव’ पहल का हिस्सा है, जिसका लक्ष्य हिमालय से लेकर सुंदरबन तक एक मिलियन हेक्टेयर जंगल को बचाना और फिर से उगाना है.  

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