विदर्भ की कृषि परंपराओं में महत्वपूर्ण बैल पोला उत्सव इस बार भी अकोला में बड़े उत्साह और पारंपरिक रंग-रूप के साथ मनाया गया. यह दिन किसानों के सच्चे साथी बैल के लिए आराम और सम्मान का माना जाता है. किसान इस अवसर पर अपने बैलों को नहला-धुलाकर हल्दी और घी से उनकी मालिश करते हैं, ताकि सालभर हल खींचने वाले बैलों की गर्दन मजबूत और स्वस्थ बनी रहे. अकोला के पोलाचौक में यह उत्सव पिछले 100 वर्षों से अधिक समय से लगातार मनाया जा रहा है. खास बात यह है कि पिछले 25 वर्षों से यहां बैल सजावट प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है. इसमें बैलों की सुंदरता, रखरखाव और श्रृंगार को देखकर किसानों को पुरस्कृत किया जाता है.
तकनीकी और आधुनिक खेती के दौर में बैलों का इस्तेमाल भले ही कम हुआ हो, लेकिन पारंपरिक खेती में उनकी अहमियत आज भी बनी हुई है. बैलों का गोबर प्राकृतिक खेती में सबसे अच्छी खाद माना जाता है. यही कारण है कि परंपराओं से जुड़े किसान अब भी बैलों का महत्व समझते हैं और उनकी देखभाल में जुटे रहते हैं.
वहीं, बदलते मौसम और लगातार फैलते नए-नए वायरस किसानों और उनकी फसलों के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं. इसके बावजूद जो किसान बैलों को पालते हैं और पारंपरिक खेती से जुड़े हैं, उनके लिए यह सजावट स्पर्धा और उसमें मिलने वाला सम्मान बड़ी प्रेरणा का काम करता है.
इस वर्ष भी बैलों की सजावट प्रतियोगिता में किसानों ने उत्साह से भाग लिया और रंग-बिरंगी पोशाकों, घंटियों, पारंपरिक आभूषणों से अपने बैलों को सजाकर पेश किया. विजेताओं को मंच पर सम्मानित किया गया. किसानों के लिए यह सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि पारंपरिक कृषि संस्कृति को जीवित रखने का संकल्प है.
महाराष्ट्र में श्रावणी अमावस्या के दिन बैल पोला पर्व बड़े उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है. किसान अपने बैल को वृषभ राजा मानकर उसका सम्मान करते हैं. सालभर खेती में मेहनत करने वाले बैलों को इस दिन आराम दिया जाता है. वहीं, साज-सज्जा कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती हैं और पूजा की जाती है. परंपरा के मुताबिक कि इस दिन बैलों से खेती का कोई काम नहीं लिया जाता. यह उत्सव बैलों के प्रति आभार व्यक्त करने और कृषि संस्कृति को जीवित रखने का प्रतीक है, जिसे किसान पूरे हर्षोल्लास के साथ निभाते हैं.