ऐसे समय में जब सिंगल क्रॉप यानी एकल फसल और केमिकल युक्त खेती आम बात हो गई है, पंजाब के बरनाला जिले में एक युवा किसान अलग कहानी लिख रहे हैं. वह एक ऐसी क्रांति का नेतृत्व कर रहे हैं जो परंपरा और इनोवेशन का मिश्रण है. वाहेगुरुपुरा गांव के प्रगतिशील किसान 36 साल के अमृत सिंह चहल ने अपने 15 एकड़ के खेत में से 8 एकड़ पर जीरो बजट प्राकृतिक खेती को अपनाया है. ऐसा करके उन्होंने आधुनिक कृषि को एक नई परिभाषा दी है. इसके अलावा वह दुर्लभ और पारंपरिक बीज किस्मों को संरक्षित करते हैं. ये ऐसे बीज हैं जो कभी खेती का मुख्य हिस्सा हुआ करते थे. लेकिन अब वह गायब होने की कगार पर हैं. चहल उन्हें अपने खेतों में उगाकर इन्हें जिंदा रखे हुए हैं.
अखबार इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार चहल ने 150 से ज्यादा तरह के बीजों का एक बीज बैंक बनाया है. इसमें वीणा कद्दू, डमरू और तुम्बी कद्दू जैसी दुर्लभ किस्में, पांच रंगों वाली गाजर के बीज और बहुत कुछ शामिल हैं. बाकी 7 एकड़ में वह गन्ना, गेहूं और धान उगाते हैं और सीजन के दौरान बाजार में बेचते हैं. चहल प्राकृतिक खेती के उत्पादों को लंबे समय तक इकट्ठा करते हैं. फिर सही समय पर उन्हें बेचते हैं. ऐसे में उन्हें बिना किसी इनपुट लागत के गेहूं और धान की खेती से दोगुनी से अधिक आय होती है.
2017 में नौकरी छोड़ने के बाद चहल खेती में उतरे और उस जमीन पर खेती करनी शुरू की जिस पर कभी उनके पिता कुलवंत सिंह काम करते थे जो रासायनिक खेती थी. यहां उनके पिता ने गेहूं और धान की खेती पर ध्यान केंद्रित किया तो चहल ने बाकी फसलों, ऑर्गेनिक और जीरो बजट वाली खेती की. आज उनके खेत में आठ किस्म की दालें, पांच किस्म के तिलहन, कई पुरानी गेहूं और बासमती किस्में, दो दर्जन फल और 60-70 किस्म की सब्जियां उगाई जाती हैं.
उन्होंने जो बीज संरक्षित किए हैं उनमें 15 किस्म के टमाटर, 12 किस्म के बैंगन जैसे सफेद, हरा, छलावरण, लंबा, छोटा, बड़ा आदि और 16 किस्म की मिर्चें जैसे लंबी, गोल और हरी, और बैंगनी, काली आदि शामिल हैं. बायो-डायवर्सिटी के लिए उनकी प्रतिबद्धता, मोनोक्रॉपिंग खेती के तरीकों के कारण पारंपरिक बीजों के खत्म होने का सीधा जवाब है. चहल के अनुसार, प्राकृतिक खेती ज्यादातर इनपुट लागतों को खत्म कर देती है. सिर्फ बीज पर ही सबसे ज्यादा खर्च होता है और इन्हें वो खुद उगाते हैं. उनकी खेती की रणनीति मौसम की स्थिति और बाजार की मांग से प्रेरित होती है. इससे वह फसल के क्षेत्रों को उसी हिसाब से समायोजित कर पाते हैं.
वह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग किए बिना भी अपनी फसलों को स्वस्थ रखते हैं. उनकी मानें तो जब वह एक एनजीओ के साथ अपनी एक नौकरी कर रहे थे तो यहां पर उन्होंने सीखा कि 43 तरह के शाकाहारी कीट और 162 प्रकार के मांसाहारी कीट हैं. शाकाहारी कीट पौधे की पत्तियों और बाकी भागों को खाते हैं और जब उनकी आबादी बढ़ जाती है, तो पौधे मांसाहारी कीटों को आकर्षित करने के लिए अपनी खुशबू बदल देते हैं. ये कीट, बदले में पौधों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खाते हैं. यह प्राकृतिक प्रक्रिया खतरनाक केमिकल्स की जरूरत को खत्म करती है. वह मिट्टी के स्वास्थ्य और उर्वरता को बनाए रखने के लिए बरसीम, गिन्नी घास और बाकी हरी खाद उगाते हैं. दलहनी फसलों के अवशेषों को भी खेत में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है, जिससे मिट्टी नाइट्रोजन से समृद्ध होती है.
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