
कर्नाटक के चिकमंगलूर जिले के बालेहोन्नूर स्थित सेंट्रल कॉफी रिसर्च इंस्टीट्यूट (CCRI) इस साल अपने 100 साल पूरे कर रहा है. दुनिया में कॉफी पर केंद्रित यह तीसरा सबसे पुराना शोध संस्थान है. इंडोनेशिया और युगांडा के बाद CCRI ने कॉफी अनुसंधान में लंबी और मजबूत पहचान बनाई है. अब संस्थान का फोकस बदलती जलवायु, बढ़ती लागत और घटती पैदावार जैसी चुनौतियों से भारतीय कॉफी किसानों को निकालने पर है. CCRI के डायरेक्टर ऑफ रिसर्च एम सेंथिलकुमार ने बताया कि संस्थान नई किस्मों के विकास के साथ-साथ खेती की लागत घटाने और जलवायु जोखिम कम करने पर काम कर रहा है.
बिजनेसलाइन से बातचीत में एम सेंथिलकुमार ने कहा कि CCRI के पास दुनिया के सबसे बड़े कॉफी जर्मप्लाज्म कलेक्शन में से एक है, जिसकी मदद से वैज्ञानिक नई और मजबूत किस्में तैयार कर रहे हैं. CCRI अब तक 13 अरेबिका और 3 रोबस्टा किस्में जारी कर चुका है. शताब्दी वर्ष के मौके पर संस्थान ने दो नई अरेबिका किस्में पेश की हैं, जो किसानों की बड़ी समस्याओं का समाधान करती हैं.
पहली किस्म- CCRI-सुरक्षा (S.4595) है. यह अरेबिका कॉफी की सबसे खतरनाक कीट समस्या व्हाइट स्टेम बोरर के खिलाफ मजबूत प्रतिरोध दिखाती है. अलग-अलग कॉफी उत्पादक इलाकों में किए गए ट्रायल में इस किस्म में कीट का असर लगभग नहीं के बराबर पाया गया. यहां तक कि ज्यादा प्रभावित इलाकों में भी नुकसान 10 प्रतिशत से कम रहा. भले ही इसके दाने का आकार चंद्रगिरी से थोड़ा छोटा हो, लेकिन सबसे बड़ा फायदा यह है कि कीटनाशकों पर होने वाला खर्च काफी घट जाता है.
दूसरी किस्म CCRI-शताब्दी (S.5086) है, जो एक हाइब्रिड वैरायटी है. अभी इसे उपज और अन्य गुणों के लिहाज से स्थिर किया जा रहा है. आने वाले समय में यह बीज के जरिए उगाने के लिए उपयुक्त हो जाएगी.
सेंथिलकुमार ने कहा कि जलवायु परिवर्तन आज CCRI की सबसे बड़ी शोध प्राथमिकता है. दुनिया के कई देशों में कॉफी खेती पर इसका गहरा असर दिख रहा है, लेकिन भारत की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर है. यहां दो-स्तरीय शेड सिस्टम प्राकृतिक रूप से तापमान को संतुलित रखता है. साथ ही भारत में अरेबिका और रोबस्टा दोनों किस्में उगाई जाती हैं, जिनकी जलवायु और मिट्टी की जरूरतें अलग-अलग हैं.
भविष्य की चुनौतियों को देखते हुए CCRI जर्मप्लाज्म संसाधनों का इस्तेमाल कर जलवायु सहनशील किस्में विकसित कर रहा है. इसके साथ ही संस्थान की एग्रोनॉमी और फिजियोलॉजी टीमें सूखा, नमी की कमी और अनियमित बारिश से निपटने के लिए व्यावहारिक समाधान तैयार कर रही हैं. संस्थान का लक्ष्य ज्यादा पैदावार, बेहतर कप क्वालिटी और स्थिर उत्पादन वाली किस्में हासिल करना है.
कॉफी खेती में मजदूरी खासकर तुड़ाई के समय बड़ी लागत बन जाती है. CCRI इस समस्या के समाधान के लिए IIT रुड़की और केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान भोपाल के साथ मिलकर काम कर रहा है. पहाड़ी और कठिन इलाकों के लिए कॉफी हार्वेस्टर, खाद फैलाने की मशीनें और अन्य उपकरण विकसित किए जा रहे हैं. साथ ही छायादार बागानों के लिए ड्रोन आधारित स्प्रे तकनीक पर भी प्रयोग चल रहा है.
CCRI में अब जीन मैपिंग, जीन एडिटिंग और टिशू कल्चर जैसी आधुनिक तकनीकों पर काम हो रहा है. मैसूर से चेत्तल्ली शिफ्ट किए गए बायोटेक्नोलॉजी सेंटर में एक विशेष टीम इन तकनीकों को कॉफी रिसर्च में लागू कर रही है. संस्थान ICAR और अन्य राष्ट्रीय संस्थानों के साथ भी संयुक्त अनुसंधान कर रहा है.
CCRI और ISRO मिलकर कॉफी बागानों में कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन का अध्ययन कर रहे हैं. इसके लिए CCRI परिसर में फ्लक्स टावर लगाया गया है, जिससे यह पता चलेगा कि कॉफी खेती कार्बन अवशोषण में कितनी भूमिका निभाती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर CCRI वर्ल्ड कॉफी रिसर्च के साथ जर्मप्लाज्म एक्सचेंज कर रहा है और नेस्ले समर्थित प्रोजेक्ट में रोबस्टा लाइनों का परीक्षण भी चल रहा है.
इसके अलावा CCRI क्लोनल प्लांटिंग मटेरियल को तेजी से बढ़ावा दे रहा है. पिछले साल किसानों के खेतों में कई प्रशिक्षण कार्यक्रम किए गए. फिलहाल संस्थान हर साल करीब एक लाख क्लोनल पौधे तैयार करता है, जिसे आगे और बढ़ाने की योजना है. जैन इरिगेशन के साथ साझेदारी से बेहतर पौध सामग्री किसानों तक तेजी से पहुंचाई जा रही है.
2007 में चंद्रगिरी किस्म जारी होने के बाद नई किस्म आने में लंबा समय लगा, लेकिन CCRI का कहना है कि आगे ऐसा नहीं होगा. एम सेंथिलकुमार ने बताया कि पेड़ वाली फसलों में प्रजनन प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से धीमी होती है. एक ही किस्म में ज्यादा पैदावार, रोग प्रतिरोध और अच्छी गुणवत्ता को जोड़ना समय लेता है.
हालांकि, अब बड़ी संख्या में उन्नत लाइनों पर फील्ड ट्रायल चल रहे हैं. नई तकनीकों और बेहतर चयन प्रक्रिया के चलते आने वाले वर्षों में कॉफी की नई किस्में किसानों तक कम समय में पहुंचेंगी. अब लक्ष्य यह है कि बिना गुणवत्ता से समझौता किए किसानों को जलवायु अनुकूल और लाभकारी कॉफी किस्में दी जा सकें.