
आपने अक्सर पचौली का नाम सुना होगा और सुना होगा कि इसका तेल काफी महंगा आता है. यही पचौली अब छत्तीसगढ़ के किसानों को पसंद आने लगी है. यहां के किसानों के लिए अब पचौली की खेती नई उम्मीद बन गई है. पचौली दरअसल एक सुगंधित झाड़ीदार पौधा है, जो खासतौर पर उष्णकटिबंधीय जलवायु में अच्छी तरह पनपता है। इसकी पत्तियों में एक खास तरह का तेल होता है जिसे पचौली ऑयल कहा जाता है. यह तेल परफ्यूम, अगरबत्ती, कॉस्मेटिक्स, अरोमा थेरेपी, साबुन और दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है.
धान और गेहूं जैसी पारंपरिक फसलें उगाने वाले छत्तीसगढ़ के किसान अब वे औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं. इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय हो रही है पचौली, जिसकी पत्तियों से बनने वाला तेल अंतरराष्ट्रीय बाजार में काफी महंगा बिकता है. यही कारण है कि आज छत्तीसगढ़ के कई किसान पचौली की खेती कर लाखों रुपए तक की आमदनी अर्जित कर रहे हैं. राज्य का मेडिसिनल प्लांट बोर्ड भी इसमें किसानों की मदद कर रहा है.
पचौली की कीमत बाजार में बाकी सुगंधित फसलों जैसे लेमनग्रास या मिंट की तुलना में कहीं अधिक है. एक हेक्टेयर में किसान औसतन 80 से 120 किलोग्राम तक तेल निकाल सकते हैं, जिसकी कीमत बाजार में प्रति लीटर 4,000 से 6,000 रुपये तक होती है. छत्तीसगढ़ की जलवायु पचौली की खेती के लिए बेहद अनुकूल मानी जाती है. यहां की गर्म और आर्द्र जलवायु इसके विकास के लिए उपयुक्त होती है. राज्य के बस्तर, कोरिया, कोरबा और सरगुजा जैसे जिलों में इस फसल ने बेहतरीन परिणाम दिए हैं. किसानों का कहना है कि जहां पहले वे पारंपरिक फसलों से मुश्किल से खर्च निकाल पाते थे, वहीं अब पचौली से उन्हें कई गुना मुनाफा हो रहा है.
कृषि विभाग और स्थानीय संस्थान भी किसानों को प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता प्रदान कर रहे हैं ताकि वो आधुनिक तरीके से इसकी खेती कर सकें. इससे न केवल उत्पादन बढ़ा है, बल्कि गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है. पचौली की खेती बीज या पौधों की कलम से की जाती है. रोपाई के लिए बरसात का मौसम सबसे उपयुक्त होता है. पौधों के बीच करीब 45 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए ताकि पर्याप्त धूप और हवा मिल सके. मिट्टी हल्की दोमट होनी चाहिए जिसमें जल निकासी की व्यवस्था हो, क्योंकि पानी का जमाव पौधों को नुकसान पहुंचा सकता है.
रोपाई के लगभग तीन से चार महीने बाद पौधे कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. कटाई के बाद पत्तियों को छाया में सुखाकर डिस्टिलेशन यूनिट में तेल निकाला जाता है. यह तेल ही असली मुनाफे की वजह होता है. पचौली की खेती की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें लागत कम और मुनाफा अधिक होता है. एक बार पौधा लगाने के बाद यह तीन साल तक उत्पादन देता है. किसान को केवल शुरुआती रोपाई और सिंचाई में थोड़ी मेहनत करनी होती है. एक एकड़ में किसान करीब 50,000 से 70,000 रुपये का खर्च करते हैं, जबकि इससे उन्हें सालाना दो से तीन लाख रुपये तक की आमदनी हो सकती है. इसके अलावा, पचौली की फसल को जंगली जानवर या कीट नुकसान नहीं पहुंचाते, जिससे रिस्क भी कम होता है.
पचौली की खेती ने छत्तीसगढ़ की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी है. कई स्वयं सहायता समूह और महिला किसान भी अब इस फसल की ओर रुख कर रहे हैं. इससे न केवल रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं, बल्कि ग्रामीणों की आय में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. राज्य सरकार भी औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष योजनाएं चला रही है, जिनके तहत किसानों को प्रशिक्षण, सब्सिडी और विपणन सहायता दी जा रही है.
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