
राजस्थान का जैसलमेर जिला, जिसे हम अक्सर तपती गर्मी और रेत के लिए जानते हैं, वहां मोहनगढ़ के पास एमजीडी गांव में एक किसान ने वो कर दिखाया है जो बड़े-बड़े कृषि वैज्ञानिकों के लिए भी किसी अजूबे से कम नहीं है. 35 वर्षीय युवा किसान दिलीप सिंह गहलोत ने यह साबित कर दिया है कि अगर हौसला हो, तो बंजर जमीन में भी सोना उगाया जा सकता है. आमतौर पर हम देखते हैं कि खेती में नई तकनीकें प्रयोगशालाओं से निकलकर खेतों तक पहुंचती हैं, लेकिन दिलीप सिंह ने अपने खेत को ही प्रयोगशाला बना दिया.
उनकी यह कहानी सिर्फ एक फसल की नहीं, बल्कि उस जिद्द और जुनून की है जो खेती में कुछ नया करने की चाहत रखती है. जहां पानी की कमी और खारे पानी की समस्या से किसान जूझ रहे थे, वहां दिलीप सिंह एक नई उम्मीद बनकर उभरे हैं. उन्होंने परंपरागत खेती के ढर्रे को तोड़ते हुए खुद के दम पर शोध करने की ठानी और सबको चौंका दिया.
दिलीप सिंह की इस कामयाबी के पीछे कोई जादू नहीं, बल्कि विज्ञान और देसी समझ का अनूठा संगम है. इस नवाचार की नींव साल 2012 में पड़ी थी. दिलीप के मन में एक विचार आया कि क्या बीजों की ताकत को बढ़ाया जा सकता है? उन्होंने गेहूं की चार पुरानी और प्रचलित किस्मों- एचडी (HD), कल्याण-सोना, लोकमान और 3765 के लगभग 100 ग्राम बीज लिए. उन्होंने इन बीजों को सामान्य पानी में नहीं भिगोया, बल्कि 10,000 गॉस (Gauss) की ताकत वाले 'नियोडिमियम चुंबक' के प्रभाव वाले पानी में 24 घंटे तक रखा.
उनका यह प्रयोग यहीं नहीं रुका, बीजों को चुंबकीय क्षेत्र में रखने के बाद जब खेत में बुवाई की, तो उन्होंने देखा कि कुछ पौधों की जड़ें और तना बाकियों से अलग और मजबूत थे. बस यहीं से 'सिलेक्शन' यानी चुनाव का काम शुरू हुआ. अगले दो सालों तक वो लगातार सिर्फ उन्हीं पौधों को चुनते रहे जिनकी बालियां सबसे लंबी थीं और तने सबसे मजबूत थे. इस तरह 'डीजी-II' किस्म की खोज की है.
साल 2015 आते-आते दिलीप सिंह की मेहनत रंग लाई और उनके खेत में गेहूं की एक ऐसी फसल खड़ी थी जिसे देखकर कोई भी हैरान रह जाए. आम तौर पर हम देखते हैं कि गेहूं की बाली की लंबाई 3 से 4 इंच के आसपास होती है, लेकिन दिलीप सिंह की विकसित की गई 'DG II' किस्म की बालियां 9 से 11 इंच तक लंबी थीं. यह किसी चमत्कार से कम नहीं था. पौधे की ऊंचाई मध्यम यानी 3 से 4 फीट रही, जिससे तेज हवा में फसल के गिरने का डर भी कम हो गया.
सबसे बड़ी बात यह रही कि इस किस्म का उत्पादन सामान्य गेहूं के मुकाबले लगभग दोगुना पाया गया. इसकी बालियों का आकार और दानों की चमक ने यह साबित कर दिया कि जमीनी स्तर पर किए गए शोध से भी तरक्की की जा सकती है.
दिलीप सिंह का यह नवाचार राजस्थान और गुजरात के उन लाखों किसानों के लिए एक वरदान साबित हो सकता है जो पानी की कमी या खारे पानी की समस्या से जूझ रहे हैं. यह किस्म 6-7 मिलियन हेक्टेयर के उस रकबे के लिए एकदम सही है जहां सिंचाई के साधन सीमित हैं या पानी की गुणवत्ता खराब है.
'DG II' किस्म ने यह दिखाया है कि यह विपरीत परिस्थितियों में भी शानदार उत्पादन दे सकती है. हालाँकि, अभी इस किस्म को वैज्ञानिकों की कसौटी पर पूरी तरह परखा जाना बाकी है. दिलीप सिंह चाहते हैं कि कृषि विश्वविद्यालय और वैज्ञानिक स्तर पर इसका हो, ताकि इसे 'पीपीवीएफआरए' के तहत रजिस्टर कराया जा सके और इसे एक आधिकारिक पहचान मिल सके. अगर इसे वैज्ञानिक मान्यता मिल जाती है, तो यह किस्म न केवल दिलीप सिंह के लिए गर्व की बात होगी, बल्कि यह पूरे भारत के शुष्क क्षेत्रों में गेहूंकी खेती की तस्वीर बदल सकती है. यह कहानी हमें सिखाती है कि असली वैज्ञानिक वो है जो खेत की मिट्टी से जुड़कर समाधान खोजे.