दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बना देश, सरकार की इन दो नीतियों से थमा आयात

दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बना देश, सरकार की इन दो नीतियों से थमा आयात

दालों के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर बना है. कुछ दालों का उत्पादन छोड़ दें तो देश में अब बड़े पैमाने पर दालों का उत्पादन होता है. मटर और चने का आयात लगभग शून्य पर पहुंच गया है. अरहर की पैदावार में तेजी देखी जा रही है, लेकिन उड़द दाल चिंता में डाल रही है. मूंग की पैदावार भी पहले से बढ़ी है.

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दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर बना देश, सरकार की इन दो नीतियों से थमा आयातदेश में दालों का उत्पादन पहले से बढ़ा है

दाल और तेल भारत के लिए बड़ी सिरदर्दी हैं. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि इनके आयात पर सरकारी खजाना खाली होता है. आयात भी इसलिए होता है क्योंकि देश में उत्पादन कम होता है जबकि खर्च बेतहाशा है. आबादी और आमदनी बढ़ने से लोगों की जरूरतें तेजी से बढ़ रही हैं. लोग दाल और खाद्य तेलों का अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं. दूसरी ओर, उस हिसाब से उत्पादन नहीं हो पा रहा. ऐसी स्थिति में आयात ही एकमात्र विकल्प बचता है. आयात भी लाखों टन में होता है. फिर सरकारी खजाना खाली होना जाहिर सी बात है. हालांकि इसमें कुछ तब्दीली भी देखी जा रही है. खाद्य तेलों में हालात बहुत अधिक नहीं सुधरे, मगर दालों में देश आत्मनिर्भर हुआ है. खासकर, मौजूदा सरकार के पिछले नौ वर्षों में.

हम यहां दालों के उत्पादन और उसके आयात की बात करेंगे. कृषि मंत्रालय का आंकड़ा बताता है कि देश में दालों का उत्पादन बढ़ने से उसके आयात में बड़ी कमी आई है. आंकड़े के मुताबिक, 2013-14 में जहां दाल की पैदावार 19.26 मिलियन टन हुआ करती थी, वह 2022-23 में बढ़कर 27.50 मिलियन टन हो गई. दालों में अगर किसी का आयात सबसे तेजी से घटा है, तो उसमें सफेद मटर और चना शामिल हैं. अब इन दोनों दालों का आयात न के बराबर होता है क्योंकि देश इनके उत्पादन में आत्मनिर्भर बन चुका है.

चना, मटर का आयात घटा

एक समय था जब देश में कनाडा, रूस, यूक्रेन और लिथुआनिया से सफेद और पीली मटर का सबसे अधिक आयात होता था. पीली या सफेद मटर का काम लगभग चने की तरह ही होता है. कई प्रोडक्ट ऐसे हैं जिनमें चना और मटर एक दूसरे को रिप्लेस करते हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद हालात ऐसे बने कि मटर का आयात महंगा होता चला गया. इधर देश में सरकारी कोशिशें रंग लाती गईं जिससे चने के उत्पादन में तेज बढ़ोतरी देखी गई. एक तरफ दुनिया के बाजारों में मटर की महंगाई ने देसी व्यापारियों को सोचने के मजबूर किया तो दूसरी ओर चने के बढ़े उत्पादन ने उन्हें आयात रोकने में मदद पहुंचाई. इसके बाद मटर के बदले चने का इस्तेमाल बढ़ता गया.

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इन दो नीतियों से घटी खरीद

अब ये जानते हैं कि देश में चना उत्पादन बढ़ाने के पीछे असल वजह क्या हैं. इसमें सरकार की दो नीतियां काम आईं. पहली नीति ये रही कि सरकार ने किसानों को दालों की खेती बढ़ाने के लिए इंसेंटिव दिया. इंसेटिंव देकर दालों का रकबा बढ़ाया गया. खास तौर पर रबी सीजन में दालों का रकबा तेजी से बढ़ा. इससे चना और मटर के उत्पादन में बड़ी तेजी देखी गई. सरकार ने इन दालों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ा कर भी आयात की कमर तोड़ दी. सरकार ने 2018 में चना पर इंपोर्ट ड्यूटी 60 परसेंट तक लगाई जबकि सफेद और पीली मटर पर यह ड्यूटी 50 परसेंट रखी गई. ड्यूटी बढ़ने का नतीजा ये रहा कि इन दोनों दालों का आयात लगभग शून्य पर पहुंच गया. एक तरफ आयात खत्म हुआ और दूसरी ओर देश में इसका उत्पादन तेजी से बढ़ा.

MSP नीति का कमाल

आयात रोकने की दूसरी नीति न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी कि MSP की रही. सरकार ने एमएसपी पर चने की खरीद हाल के वर्षों में बढ़ाई है. यहां तक कि चने की एमएसपी भी बढ़ाई गई है. कभी चने की खरीद 3100 रुपये क्विंटल पर होती थी जो बढ़कर 5335 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गई. इससे किसानों को चने की खेती करने के लिए प्रोत्साहन मिला क्योंकि उनकी कमाई धीरे-धीरे बढ़ती गई. हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो संतोषजनक नहीं है. चने की खेती जिस तेजी से बढ़ी, वह तेजी अन्य दालों में नहीं देखी गई. खासकर अरहर का उत्पादन उस हिसाब से नहीं बढ़ा. 

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अरहर के उत्पादन में मिलाजुला ट्रेंड देखा गया जिसमें इसकी पैदावार कभी बढ़ी तो कभी गिरी. हालांकि अच्छी बात ये रही कि 10 साल पहले की तुलना में इसमें बढ़ोतरी है, भले ही कम रेट से हो. दूसरी ओर, उड़द दाल के उत्पादन में कमी देखी जा रही है और पिछले चार साल में इसका उत्पादन औसतन 2.42 मिलियन टन बना हुआ है. मूंग की स्थिति पहले से बेहतर हुई है और इसने उत्पादन के मामले में अरहर को पीछे छोड़ दिया है. अभी सबसे अधिक चिंता की बात उड़द दाल के उत्पादन के साथ देखी जा रही है.

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