scorecardresearch
Pakal Malayalam Movie: किसानों के हक के लिए लड़ने वाले एक पत्रकार की कहानी

Pakal Malayalam Movie: किसानों के हक के लिए लड़ने वाले एक पत्रकार की कहानी

‘पकल’ ने एक प्रभावपूर्ण तरीके से पत्रकारिता और किसानों के मुद्दों को एक कहानी में बुन कर लोगों के सामने पेश किया. ये कहानी है टीवी पत्रकार नंदकुमार और कैमरामैन अबू की जिन्हें किसानों की समस्याओं पर एक सीरीज़ बनाने के लिए पन्नक्कामुडी भेजा जाता है.

advertisement
मलयालम फिल्म ‘पकल’ मलयालम फिल्म ‘पकल’

मलयालम में फिल्मों और साहित्य की एक समृद्ध परंपरा रही है. 1928 में एक दांतों के डॉक्टर जे सी डेनियल्स ने अपनी सारी जमा पूंजी लगा कर मलयालम में पहली फिल्म बनाई थी जिसका नाम था, ‘विगथकुमारन’. दुर्भाग्य से ये फिल्म बिलकुल नहीं चली और ना ही इसे साहित्य और संस्कृतिकर्मियों की तरफ से कोई प्रोत्साहन मिला. नतीजतन, जे सी डेनियल्स ने, जो एक धनवान डॉक्टर थे, जीवन के आखिरी दिन बहुत गरीबी में गुज़ारे. 1933 में डेनियल्स के ही एक रिश्तेदार आर सुंदरराज ने दूसरी मूक फिल्म बनाई ‘मार्थण्डवर्मा’. इस फिल्म ने पहले हफ्ते में ज़बरदस्त कारोबार किया लेकिन फिर जिस उपन्यास पर यह फिल्म आधारित थी, उसके प्रकाशक ने कॉपी राइट उल्लंघन के लिए सुंदरराज पर केस कर दिया. सुंदरराज केस हार गए और फिल्म को पर्दे से उतार दिया गया.

फिर 1938 में कुछ उत्साही युवा फ़िल्मकारों ने सलेम मॉडर्न थिएटर्स की स्थापना की और इसके तहत एस नोटानी के निर्देशन में एक टौकी (बोलती) फिल्म बनाई गई ‘बालन’. ‘बालन’ बहुत हिट फिल्म साबित हुई और इस तरह मलयालम सिनेमा की यात्रा शुरू हुई जो भारतीय सिनेमा में कलात्मक दृष्टि से सबसे प्रतिष्ठित यात्रा रही है. फिल्म निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन, जॉन अब्राहम, श्रीनिवासन, गोविंदन अरविंदन, पी ए बाकर और फ़ाज़िल विश्व सिनेमा में भी अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं.

लेकिन आज हम बात करेंगे एक ऐसे निर्देशक की जो ज़्यादातर सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्रासंगिक फिल्में ही बनाते हैं. एम ए निषाद मलयालम के युवा फिल्म निर्देशक हैं जिनकी बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी ‘पकल’ (यानि दिन का समय). फिल्म रिलीज़ हुई थी 2006 में. अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि यह वही समय था जब भारत में टेलिविजन पत्रकारिता अपने चरम पर थी. राष्ट्रीय चैनल पर आने वाले पत्रकार और रिपोर्टर किसी स्टार से कम नहीं होते थे. देश-समाज में नीति निर्माण के दौरान पत्रकारों के विचारों और उनके अनुभवों का गंभीर अध्ययन किया जाता था. लेकिन बदकिस्मती से यही वह दौर था जब कर्ज़ के बोझ के कारण किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरों से समाज दहला हुआ था.

‘पकल’ ने एक प्रभावपूर्ण तरीके से पत्रकारिता और किसानों के मुद्दों को एक कहानी में बुन कर लोगों के सामने पेश किया. ये कहानी है टीवी पत्रकार नंदकुमार और कैमरामैन अबू की जिन्हें किसानों की समस्याओं पर एक सीरीज बनाने के लिए पन्नक्कामुडी भेजा जाता है. नंदकुमार एक आदर्शवादी युवक है जो आई ए एस की प्रतिष्ठित नौकरी को छोड़ कर पत्रकारिता में आया है और जिसका मानना है कि पत्रकार को कमजोर और शोषित समाज की आवाज़ बनना चाहिए . उसकी बेबाक और निष्पक्ष रिपोर्टिंग के कारण उसका कार्यक्रम काफी मशहूर है. जब वह पन्नक्कामुडी पहुंचता है तो उसका सामना होता है 87 वर्षीय कुंजप्पन से जो पिछले 14 वर्षों से गाँव के सरकारी दफ्तर के बाहर इंसाफ पाने के लिए धरने पर बैठा है. कुंजप्पन की ज़मीन अधिकारियों ने जबरन ले ली है और कागजों में उसे एक अमीर आदमी बताया गया है.

ये भी पढ़ें:- Mataad matadu malige: जब एक फिल्म ने दी हिम्मत, व्यवस्था के खिलाफ एकजुट हुए किसान

कुंजप्पन और गाँव का एक पादरी नंदकुमार का परिचय करवाते हैं जोसफ से जो कर्ज़ में डूबा हुआ एक विवश किसान है. जोसफ की बड़ी बेटी मेर्लिन किसी एक्सपोर्ट कंपनी में काम करती है और छोटी बेटी सेलीन डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है. सभी की निगाहें टिकी हैं सेलीन पर- कि जल्द ही वह अपनी पढ़ाई खत्म करके काम करे, पैसे कमाए और जोसफ को कर्ज़ चुकता करने में आसानी हो. गाँव के लोगों को भी सेलीन से बहुत उम्मीदें हैं क्योंकि वह उस गाँव से पहली डॉक्टर होगी. जोसफ सेलीन की पढ़ाई के लिए लगातार कर्ज़ ले रहा है जिसे उतारना उसके लिए लगभग नामुमकिन है. शुरुआत में गाँव वालों का भरोसा जीतने में नंदकुमार को कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ता है , लेकिन धीरे-धीरे जब गाँव वाले ये देखते हैं कि वह किस तरह एक-एक करके उनकी दिक्कतों को लोगों के सामने ला रहा है, तो वे उसे अपने समुदाय के एक सदस्य के तौर पर स्वीकार कर लेते हैं.

फसल का खराब हो जाना, कर्जे की किश्तों का बोझ, अपने उत्पाद की कम कीमत मिलना, ज़मीन का अधिग्रहण- जब नंदकुमार इन सभी समस्याओं को उधेड़ना शुरू करता है तो यह कड़ुवा सत्य झेलना प्रशासन और नेताओं के लिए दूभर हो जाता है. चैनल पर दवाब डाला जाता है जिसके चलते नंदकुमार को आदेश दिया जाता है कि वह अपना काम बंद करे और वापिस आ जाए. इस बीच जोसेफ और मेर्लिन भी उम्मीद का दामन छोड़ आत्महत्या कर लेते हैं. यह हादसा नंदकुमार को अंदर तक झकझोर देता है और एक कश्मकश से गुज़र कर वह निश्चय करता है कि वह उसी गाँव में रहेगा और गाँव वालों के साथ मिल कर उन्हें इन तमाम दिक्कतों से निकलने के लिए ना सिर्फ प्रोत्साहित करेगा बल्कि उनकी सहायता भी करेगा.

निर्देशक एम ए निषाद ने इस फिल्म में किसानों से जुड़ी लगभग हर अहम समस्या को हाइलाइट करने की कोशिश की है और फिर बहुत कुशलता से कहानी के केंद्र में उन किरदारों को खड़ा कर दिया है जो केरल के उस क्षेत्र के किसानों की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करते हैं. वरिष्ठ अभिनेता थिलकन 87 वर्षीय कुंजप्पन की भूमिका में हैं जिसने सरकारी नीतियों में खामियों के चलते अपना सब कुछ लुटा दिया और चार बेटियों का पिता जोसफ की भूमिका में है टी जी रवि, जो लगातार कर्जे के बोझ में दबता चला जाता है और अंत में जीवन से हार मान लेता है.

संवादों में ग्लोबलाइज़ेशन और वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइज़ेशन और यहाँ तक कि उस क्षेत्र के किसानों पर वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ के लेखों का भी ज़िक्र है. फिल्म में वास्तविकता का पुट देने के लिए इसे डॉक्युमेंट्री की तरह शूट किया गया है. हालांकि फिल्म में किसानों की समस्याओं के हल को बहुत आदर्शवादी तरीके से दिखाया गया है, जो अवास्तविक जान पड़ता है. लेकिन पूरी फिल्म ही एक आदर्शवादी नायक के नज़रिये को बयान करती है. नंदकुमार एक साधारण पत्रकार नहीं है बल्कि वह आई ए एस की परीक्षा में पास होकर पत्रकारिता को चुनता है ताकि वह आम लोगों की आवाज़ बन सके और आमजन की समस्याओं का हल भी सुझा सके.

ये भी पढ़ें:- The Last Farmer: जब 80 वर्षीय किसान नल्लाण्डी ने निभाई जीवन की आखिरी और बेहतरीन भूमिका

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि निर्देशक ने ऐसे संवेदनशील विषय को चुना जो आज भी प्रासंगिक है और उसने दो ऐसे व्यवसायों की बात की जो एक-दूसरे से अलग हैं लेकिन उन दोनों के बीच की दूरी को पाटती है वे समस्याएँ जो राजनैतिक अक्षमता और इच्छाशक्ति की कमी से उपजती हैं . एक व्यक्ति पर दवाब डाला जाता है कि वह अपना काम ना करे ताकि सच्चाई को छिपाया जा सके, और दूसरा व्यक्ति काम ही नहीं कर पाता क्योंकि उस पर गलत नीतियों का बोझ है.

कहना ना होगा कि इस विषय को ट्रीट करना बहुत जटिल था लेकिन निर्देशक इस काम में खरे उतरे. पृथ्वीराज सुकुमारन (जो आजकल मलयालम फिल्मों के सुपरस्टार हैं ) नायक नंदकुमार की भूमिका में हैं और उन्होने बहुत कुशलता से इस किरदार को निभाया है. बतौर रिपोर्टर किसानों की व्यथा को शूट करते हुये कई बार उनके चेहरे पर दुविधा के भाव झलकते हैं कि एक व्यक्ति की पीड़ा को किस हद तक उन्हें कैमरे पर उतारना चाहिए या एक निजी दुख की गरिमा का ख्याल करते हुये कैमरा बंद कर देना चाहिए.

फिल्म ‘पकल’ ने बॉक्सऑफिस पर ठीकठाक बिजनेस किया लेकिन यह फिल्म दर्शकों की स्मृति में एक छाप छोड़ गई जिसे, एक अलग ढंग से हिन्दी में पेश किया गया. याद है, 2010 में आई फिल्म ‘पीपली लाइव’? इस कहानी की रूपरेखा लगभग यही थी – एक पत्रकार गाँव में जाता है, एक किसान की आत्महत्या और उसके मुद्दों को सबके सामने लाने के लिए. लेकिन यह फिल्म व्यंगात्मक थी, इसमें ‘डार्क ह्यूमर’ का इस्तेमाल किया गया था जबकि ‘पकल’ में इसी कहानी को गंभीरता से पेश किया गया है. इससे एक बात तो साबित होती है – किसानों के मुद्दों को सभी के सामने लाने और उनकी समस्याओं के हल के लिए सत्ता पर दवाब बनाने के लिए पत्रकार एक सशक्त माध्यम हो सकते हैं और रहे भी हैं.