भारत में खाद्य तेलों की मांग बढ़ी हैहम भारतीयों के खाने में तेल का बहुत महत्व है. चाहे सब्जी में तड़का लगाना हो या त्योहारों पर पकवान बनाना हो, बिना तेल के हमारी थाली अधूरी है. लेकिन दुनिया में खेती का पावरहाउस होने के बावजूद, हम अपनी जरूरत का पूरा तेल खुद पैदा नहीं कर पा रहे हैं. नीति आयोग की अगस्त 2024 की रिपोर्ट बताती है कि भारत राइस ब्रान अरंडी, तिल और कुसुम के तेल उत्पादन में दुनिया में नंबर एक पर है. यह गर्व की बात है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि हम अपनी कुल जरूरत का केवल 44 फीसदी तेल ही खुद बनाते हैं. बाकी का लगभग 56 फीसद तेल हमें दूसरे देशों से मंगाना पड़ता है.
जैसे-जैसे हमारी आबादी बढ़ रही है और लोगों की जेब में पैसा आ रहा है, तेल की खपत भी तेजी से बढ़ी है. गांव हो या शहर, हर जगह तेल का इस्तेमाल बढ़ा है. इसीलिए, सरकार ने अब ठान लिया है कि हमें इस मामले में भी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना है.
भारत में खाद्य तेलों का महत्व तो बहुत है, लेकिन समस्या यह है कि हमारी मांग हमारे उत्पादन से कहीं ज्यादा तेज भाग रही है. खासकर प्रति व्यक्ति खपत में भारी उछाल आया है. आंकड़े बताते हैं कि गांवों में जहां 2004-05 में एक आदमी साल भर में करीब 5.76 किलो तेल खाता था, वह अब 2022-23 में बढ़कर 10.58 किलो हो गया है. यानी गांवों में तेल खाने की मात्रा लगभग 84% बढ़ गई है. शहरों में भी यह आंकड़ा 7.92 किलो से बढ़कर 11.78 किलो हो गया है.
हालात ये हैं कि हम अपनी कुल जरूरत का सिर्फ 44 फीसद तेल ही खुद बना पा रहे हैं, बाकी का लगभग 56 फीसद तेल हमें आज भी विदेशों से खरीदना पड़ता है. हालांकि, एक राहत की बात यह है कि पिछले कुछ सालों में हमारी विदेशी निर्भरता थोड़ी कम हुई है जो पहले 63 फीसद थी, अब घटकर 56 फीसद हो गई है. हम आत्मनिर्भरता की ओर धीरे-धीरे बढ़ तो रहे हैं, लेकिन जिस तेजी से देश में तेल की 'भूख' बढ़ रही है, उसे देखते हुए अभी भी मंजिल काफी दूर है.
इस कमी को पूरा करने के लिए सरकार ने सबसे बड़ा दांव 'पाम ऑयल' पर लगाया है. इसके लिए 'राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन- पाम ऑयल' की शुरुआत की गई है. पाम ऑयल की खासियत यह है कि यह कम जमीन में अन्य तिलहनों के मुकाबले बहुत ज्यादा तेल देता है. सरकार का लक्ष्य है कि साल 2025-26 तक 6.5 लाख हेक्टेयर जमीन पर पाम की खेती हो. नवंबर 2025 तक, देश में पाम ऑयल की खेती का दायरा बढ़कर 6.20 लाख हेक्टेयर हो चुका है. इसका असर उत्पादन पर भी दिखा है—जहां 2014-15 में हम सिर्फ 1.91 लाख टन कच्चा पाम तेल उत्पादन करते थे, वहीं 2024-25 में यह बढ़कर 3.80 लाख टन हो गया है. यानी उत्पादन लगभग दोगुना हो गया है. सरकार का अगला बड़ा लक्ष्य 2029-30 तक इसे 28 लाख टन तक पहुंचाना है.
सिर्फ पाम ऑयल ही नहीं, सरकार हमारे पारंपरिक 'देसी' तिलहनों को भी बढ़ावा दे रही है. इसके लिए 'एनएमईओ- तिलहन' मिशन शुरू किया गया है. इसका सीधा मकसद है—अच्छे बीज, बेहतर तकनीक और सही बाजार. अभी हमारे देश में राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे चार राज्य मिलकर देश का लगभग 78 फीसद तिलहन उगाते हैं. जैसे राजस्थान में सरसों और एमपी में सोयाबीन का राज है. सरकार का टारगेट है कि 2030-31 तक तिलहन का उत्पादन 39 मिलियन टन से बढ़ाकर 69.7 मिलियन टन कर दिया जाए. इसके लिए 'क्लस्टर खेती' और उन्नत बीजों पर जोर दिया जा रहा है, ताकि किसान कम मेहनत में ज्यादा फसल ले सकें.
अगर हम इतिहास देखें, तो 1990 के दशक में भारत ने 'पीली क्रांति' के जरिए तेल के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली थी. तब सरकार ने किसानों को अच्छा भाव और सुरक्षा दी थी. लेकिन बाद में वैश्विक व्यापार के नियम (WTO) बदले, विदेशी तेल सस्ता हुआ और हम आयात पर निर्भर होते चले गए. इसका नुकसान यह हुआ कि जब भी विदेश में तेल के दाम बढ़ते हैं, हमारी रसोई का बजट बिगड़ जाता है.
साथ ही, हमारा अरबों रुपया विदेशी मुद्रा के रूप में बाहर चला जाता है. अब सरकार फिर से पुरानी गलतियों को सुधार रही है. लक्ष्य यह है कि हमारे किसान इतना उत्पादन करें कि हमें बाहर के उतार-चढ़ाव से फर्क न पड़े. यह सिर्फ तेल की बात नहीं है, यह देश की सुरक्षा और किसान की जेब की बात है.
तिलहन की खेती हमारे किसानों के लिए 'कैश क्रॉप' है, यानी इससे तुरंत अच्छी कमाई हो सकती है. हालांकि, अभी भी एक बड़ी चुनौती यह है कि लगभग 76 फीसद तिलहन की खेती बारिश के भरोसे होती है. अगर बारिश कम या ज्यादा हुई, तो फसल पर असर पड़ता है. लेकिन नई तकनीकों और सरकारी मिशन के आने से उम्मीद की किरण जगी है.
तिलहन न केवल कुपोषण से लड़ने और सेहत सुधारने में मदद करते हैं, बल्कि ये ग्रामीण इलाकों में रोजगार भी बढ़ाते हैं. अगर किसान भाई पाम ऑयल और उन्नत तिलहन खेती को अपनाते हैं, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत खाद्य तेल के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो जाएगा.
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