बिहार में चीनी उद्योग संकट मेंभारत की टेक्सटाइल इंडस्ट्री के बाद शुगर इंडस्ट्री देश की दूसरी सबसे बड़ी खेती आधारित इंडस्ट्री मानी जाती है. लाखों किसानों की आय सीधे इसी पर निर्भर करती है. खेती, प्रोसेसिंग और इससे जुड़ी सहायक गतिविधियों के जरिए यह सेक्टर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी भूमिका निभाता है. बिहार में यह उद्योग लंबे समय से रीढ़ की हड्डी की तरह मौजूद रहा है, लेकिन स्थिति पिछले कुछ दशकों में लगातार चुनौतीपूर्ण होती गई है.
बिहार में शुगर सेक्टर को दो हिस्सों में बांटा जाता है—ऑर्गनाइज्ड सेक्टर, यानी चीनी मिलें, और अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर, जिसमें गुड़ और खांडसारी उद्योग शामिल हैं. दोनों ही ग्रामीण रोजगार में अहम योगदान देते हैं, लेकिन राज्य की शुगर इंडस्ट्री फिलहाल कई मोर्चों पर संघर्ष कर रही है.
सबट्रॉपिकल क्षेत्र होने के कारण बिहार, यूपी के बाद इस जोन में दूसरा सबसे बड़ा चीनी उत्पादक राज्य रहा है. तकरीबन 10 साल पहले राज्य में लगभग 2.52 लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती होती थी और हर साल करीब 126 लाख टन गन्ना पैदा होता था. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बिहार का हिस्सा बेहद कम रहा—एरिया में सिर्फ 4.90% और उत्पादन में 4.31%.
हालांकि सही एरिया का हालिया पूरा डेटा आसानी से उपलब्ध नहीं है, बिहार में गन्ने की खेती 2016-17 में लगभग 2.4 लाख हेक्टेयर थी, और सबसे हालिया प्रोडक्शन के आंकड़े 2022-23 में 120.6 लाख टन दिखाते हैं. मुख्य उगाने वाले इलाकों में चंपारण क्षेत्र (पूर्व और पश्चिम दोनों) के साथ-साथ मुजफ्फरपुर, पटना और भागलपुर जैसे जिले शामिल हैं.
| वर्ष | गन्ना पेराई (लाख क्विंटल) | चीनी उत्पादन (लाख क्विंटल) |
| 2016-17 | 571 | 52 |
| 2017-18 | 747 | 71.5 |
| 2018-19 | 810 | 84 |
| 2019-20 | 674 | 72 |
| 2020-21 | 460 | 46 |
| 2021-22 | 473 | 45.60 |
| 2022-23 | 663 | 62 |
हाल ही में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में 10 चीनी मिलें चल रही हैं. राज्य सरकार नौ बंद मिलों को फिर से खोलने और 25 नई मिलों को शुरू करने की योजना बना रही है, जिससे आने वाले समय में चल रही मिलों की कुल संख्या में काफी बढ़ोतरी होगी. नई योजनाओं के लागू होने के बाद, चल रही मिलों की कुल संख्या 34 हो जाएगी.
BAU, सबौर की एक रिपोर्ट बताती है कि सिंचाई का अभाव बिहार के गन्ना किसानों के लिए सबसे बड़ी रुकावट है. कई इलाकों में बिजली और डीजल की कमी, नहरों और ट्यूबवेल से पानी की दूरी खेती की लागत बढ़ा देती है. इसके साथ ही समय पर खाद और लेबर उपलब्ध न होना भी किसानों की मुश्किलें बढ़ाता है.
लेबर की कमी का एक बड़ा कारण बढ़ती मजदूरी और MNREGA में मजदूरों की उपलब्धता बताया जाता है.
दक्षिण भारत की तरह जहां चीनी मिलें लगभग आठ महीने चलती हैं, वहीं बिहार में चीनी उत्पादन का सीजन केवल चार महीने—नवंबर से फरवरी—तक सीमित है.
इससे मशीनरी खाली पड़ी रहती है, मजदूरों को सालभर रोजगार नहीं मिलता और मिलों को आर्थिक रूप से टिके रहना मुश्किल हो जाता है.
बिहार का चीनी रिकवरी रेट (गन्ने से निकलने वाली चीनी की मात्रा) राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है. इससे न केवल उत्पादन कम होता है, बल्कि मिलों की लागत और बढ़ जाती है. पुरानी तकनीक, महंगी प्रोसेसिंग और एक्साइज ड्यूटी भी उद्योग को मुकाबले में पीछे धकेलते हैं.
बिहार में खांडसारी और गुड़ बनाने की परंपरा पुरानी है. यह क्षेत्र टैक्स से काफी हद तक मुक्त है और किसानों को गन्ने का अच्छा दाम दे सकता है. अनुमान है कि बिहार में पैदा होने वाले करीब 40% गन्ने का इस्तेमाल खांडसारी और गुड़ बनाने में हो जाता है. नतीजा ये होता है कि चीनी मिलों को कच्चा माल और भी कम मिलता है.
विशेषज्ञ मानते हैं कि सिंचाई सुधार, आधुनिक तकनीक, मिलों में नई प्रोसेसिंग क्षमता, बाय-प्रोडक्ट्स (जैसे बगास और मोलासेस) का बेहतर उपयोग, और किसानों को समय पर इनपुट उपलब्ध कराना—ये सभी कदम उद्योग को दोबारा मजबूत कर सकते हैं.
बिहार की शुगर इंडस्ट्री कभी पूर्व भारत की औद्योगिक रीढ़ मानी जाती थी. सवाल अब यह है कि क्या आने वाले वर्षों में यह उद्योग आधुनिक बदलावों और सरकारी समर्थन के सहारे अपनी पुरानी चमक वापस हासिल कर पाएगा.
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