फ्लोरीकल्चर के क्षेत्र में एक वैज्ञानिकों ने एक अहम उपलब्धि हासिल की है. पुणे स्थित आईसीएआर-फ्लोरीकल्चर रिसर्च डायरेक्टोरेट (आईसीएआर-डीएफआर) के वैज्ञानिकों ने ब्लॉसम मिज की एक नई प्रजाति की खोज की है. उनकी मानें तो यह प्रजाति भारत में चमेली की फसलों को नुकसान पहुंचा रही है. रिसर्च में शामिल वैज्ञानिकों के अनुसार कॉन्टारिनिया इकार्डिफ्लोरेस नामक यह प्रजाति फ्लोरीकल्चर रिसर्च में काफी अहम साबित हो सकती है.
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार कॉन्टारिनिया वंश के ब्लॉसम मिज को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सजावटी और खाद्य दोनों प्रकार की फसलों के लिए एक गंभीर कीट के तौर पर जाना जाता है. हाल ही में पहचाने गए सी. इकार्डिफ्लोरेस चमेली की खेती में, विशेष तौर पर फूलों की कलियों पर हमला करके उसे काफी आर्थिक नुकसान पहुंचाते हैं. हालाकि यह बिल्कुल कॉन्टारिनिया मैकुलिपेनिस, के समान ही है, लेकिन कई रिसर्च में यह बात सामने आई है कि यह एक अलग प्रजाति है.
सी इकार्डिफ्लोरेस अपना जीवन चक्र 16 से 21 दिनों में पूरा करता है, जिससे यह चमेली उत्पादन के लिए एक स्थायी खतरा बन गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि टारगेटेड और पर्यावरण-अनुकूल कीट प्रबंधन रणनीतियों को विकसित करने के लिए इसके जीव विज्ञान को समझना आवश्यक है. इस तरह के हस्तक्षेप किसानों को अपनी फसलों की सुरक्षा करने, आर्थिक नुकसान कम करने और टिकाऊ कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने में मदद कर सकते हैं.
भारत में चमेली की खेती तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कई और राज्यों में व्यावसायिक स्तर पर की जाती है. इसकी प्रमुख किस्में अरेबियन चमेली (जैस्मीनम साम्बक) और स्पेनिश चमेली (जैस्मीनम ग्रैंडिफ्लोरम) हैं और ये दोनों ही अपनी तेज सुगंध के लिए जानी जाती हैं. इनका प्रयोग मालाओं, इत्र और दूसरे कामों में किया जाता है. इसकी खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी, हल्की से गर्म जलवायु और धूप वाली परिस्थितियों की आवश्यकता होती है. साथ ही गुणवत्ता और उपज के लिए छंटाई और सुबह-सुबह बंद कलियों की कटाई महत्वपूर्ण है.
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