प्रति एकड़ 3400 रुपये का खर्च और कपास की गुलाबी सुंडी से छुटकारा, जानें एक्सपर्ट की बताई टिप्स 

प्रति एकड़ 3400 रुपये का खर्च और कपास की गुलाबी सुंडी से छुटकारा, जानें एक्सपर्ट की बताई टिप्स 

पिछले करीब चार सालों से पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कपास की खेती करने वाले किसान गुलाबी सुंडी से परेशान हैं. गुलाबी सुंडी जिसे पिंक बॉलवॉर्म के तौर पर ज्‍यादातर लोग जानते हैं,  इन उत्‍तरी राज्यों में खतरनाक तरीके से कपास की फसलों को तबाह कर दिया है. जुलाई के पहले सप्ताह तक इन राज्यों में कपास की खेती पिछले साल के करीब 16 लाख हेक्टेयर से घटकर इस साल सिर्फ 10 लाख हेक्टेयर रह गई है.

Advertisement
प्रति एकड़ 3400 रुपये का खर्च और कपास की गुलाबी सुंडी से छुटकारा, जानें एक्सपर्ट की बताई टिप्स साल 2017-2018 में पहली बार गुलाबी सुंडी का हमला देखा गया था

पिछले करीब चार सालों से पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कपास की खेती करने वाले किसान गुलाबी सुंडी से परेशान हैं. गुलाबी सुंडी जिसे पिंक बॉलवॉर्म के तौर पर ज्‍यादातर लोग जानते हैं,  इन उत्‍तरी राज्यों में खतरनाक तरीके से कपास की फसलों को तबाह कर दिया है. जुलाई के पहले सप्ताह तक इन राज्यों में कपास की खेती पिछले साल के करीब 16 लाख हेक्टेयर से घटकर इस साल सिर्फ 10 लाख हेक्टेयर रह गई है. गुलाबी सुंडी के हमलों को रोकने के लिए प्रभावी तकनीकें मौजूद हैं लेकिन फिर भी किसान अभी तक इन तरीकों को विस्‍तृत तौर पर अपनाने से हिचक रहे हैं. 

कपास की फसल को होता नुकसान 

गुलाबी सुंडी कपास की फसल को बड़ा नुकसान पहुंचाता है क्योंकि यह अपने लार्वा को कपास के छोटे-छोटे गोलों में दबा देता है. इसका नतीजा होता है कि लिंट कट जाता है और दाग लग जाता है. इसके बाद फिर यह किसी भी काम का नहीं रहता है. साल 2017-2018 में पहली बार उत्‍तर भारत में गुलाबी सुंडी का हमला देखा गया था. हरियाणा और पंजाब के कुछ जगहों परइसका हमला नजर आया था. इन राज्‍यों में मुख्य तौर पर बीटी कॉटन की खेती की जाती है. साल 2021 तक इसने बठिंडा, मानसा और मुक्तसर सहित पंजाब के कई जिलों में काफी नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था. 

यह भी पढ़ें-मोमी मक्का के खास गुणों के कारण दुनिया में बढ़ी इसकी मांग, आप भी कर सकते हैं खेती

साल दर साल बढ़ते हमले 

पंजाब कृषि विभाग के अनुसार साल 2021 में कपास उत्पादन करने वाले करीब 54 प्रतिशत क्षेत्र में इसका संक्रमण अलग-अलग स्‍तर पर था. उस साल राजस्थान के आस-पास के क्षेत्रों में भी इसका संक्रमण देखा गया था. साल 2021 के बाद से ही इन राज्‍यों में गुलाबी सुंडी के हमलों में तेजी आ रही है. पंजाब के अलावा, राजस्थान में प्रभावित जिले श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ हैं. जबकि हरियाणा में सिरसा, हिसार, जींद और फतेहाबाद इससे प्रभावित हैं. इस साल, बुवाई के दो महीने बाद, इन राज्यों में गुलाबी सुंडी के हमले की खबरें सामने आ रही हैं. 

यह भी पढ़ें-धान की खेती छोड़ें और प्रति एकड़ 17500 रुपये पाएं, पंजाब के मंत्री का किसानों को ऑफर 

कौन से रोकने के तरीके 

गुलाबी सुंडी को रोकने के दो कारगर तरीके हैं. दोनों ही तरीके इसकी प्रजनन प्रक्रिया को बाधित करने से जुड़ी हुई हैं. इनकी लागत करीब 3300 से 3,400 रुपये प्रति एकड़ है. पहली तकनीक को पर्यावरण के अनुकूल भी माना गया है. साथ ही इसे पश्चिमी देशों में फसल सुरक्षा का गोल्‍डन स्‍टैंडर्ड कहा जाता है. इस तकनीक में कपास के पौधों के तने पर, टहनियों के पास एक निश्चित पेस्ट का प्रयोग किया जाता है.

यह भी पढ़ें-'रोमन नोज' के नाम से मशहूर है ये देसी बकरी, दूध-मांस से बना देती है अमीर

पश्चिम में मशहूर पहला तरीका  

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू), लुधियाना के वरिष्ठ कीट विज्ञानी डॉ. विजय कुमार के हवाले से अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने लिखा है कि यह पेस्ट सिंथेटिक फेरोमोन छोड़ता है जो नर कीड़ों आकर्षित करते हैं. लेकिन इन फेरोमोन की मौजूदगी की वजह से ये नर कीट मादा कीटों को ढूंढ़ने में असमर्थ होते हैं. इससे प्रजनन प्रक्रिया बाधित होती है और गुलाबी सुंडी की आबादी कम हो जाती है. उन्‍होंने बताया कि करीब 7,000 कपास के पौधों वाले एक एकड़ के खेत के लिए, पेस्ट को पूरे खेत में फैले 350-400 पौधों पर, कुल तीन बार - बुवाई के 45-50 दिन, 80 दिन और 110 दिन बाद लगाया जाना चाहिए. 

यह भी पढ़ें-यूपी में फलों-सब्जियों और फूलों की खेती को मिलेगा बढ़ावा, ऐसे बढ़ेगी किसानों की आय

क्‍या है पीबी नॉट टेक्निक 

दूसरी तकनीक, जिसे पीबी नॉट टेक्निक के तौर पर जानते हैं, इसी सिद्धांत पर काम करती है. इसमें, फेरोमोन डिस्पेंसर के साथ धागे की गांठें कपास के खेतों पर रणनीतिक रूप से लगाई जाती हैं ताकि नर पतंगे भ्रमित हो जाएं और उन्हें मादा पतंगों को खोजने से रोका जा सके. इस डिस्पेंसर को कपास के पौधों में तब बांधना होता है जब वे 45-50 दिन के हो जाते हैं. इसके अलावा किसानों के बीच जागरूकता और प्रशिक्षण की भी महत्वपूर्ण कमी है. इससे उन्‍हें इन तकनीकों को समझने और अपनाने में समय लग जाता है. 

POST A COMMENT