दलहन फसल मसूर, प्रोटीन और अन्य आवश्यक पोषक तत्वों का एक महत्वपूर्ण आहार स्रोत है. मसूर की फसल को जैविक और अजैविक कारकों द्वारा कई प्रकार के रोगों से हानि होती है. इनमें सबसे महत्वपूर्ण और विनाशकारी मृदाजनित रोग फ्यूजेरियम उकठा है. इसमें किसानों के खेतों में उपज का 50 प्रतिशत तक नुकसान होता है. यह रोग 22-25 डिग्री सेल्सियस तापमान पर पनपता है और मसूर के अंकुरण एवं वानस्पतिक या फसल के प्रजनन चरणों को प्रभावित करता है. समन्वित रोग प्रबंधन जिसमें प्रतिरोधी या आंशिक प्रतिरोधी किस्मों, बुवाई के समय का समायोजन, जैव-नियंत्रण और रासायनिक बीज उपचार आदि शामिल हैं, जैसी विधियों को अपनाकर इस रोग के नुकसान को कम किया जा सकता है.
कृषि वैज्ञानिक संजीव कुमार, रमेश नाथ गुप्ता, चंद्रशेखर आजाद, राकेश कुमार और हंसराज ने लिखा है कि उकठा रोग के लक्षण शुरूआत में खेत के छोटे-छोटे हिस्सों में नवजात एवं वयस्क दोनों प्रकार के पौधों पर दिखाई देते हैं. फिर धीरे-धीरे पूरे खेत में फैल जाते हैं. इसका प्रकोप होने पर नवजात पौधों की पत्तियां सूखने लगती हैं तथा पौधे मुरझाकर झुक जाते हैं. फिर पूरा पौधा सूख जाता है. रोगग्रस्त पौधे की जड़ें स्वस्थ दिखायी देती हैं, लेकिन उनमें शाखायें कम होती हैं.
मसूर के वयस्क पौधों में रोग के लक्षण मुख्य तौर पर फूल आने के समय या फलियों में दाने बनने के समय दिखाई देते हैं. रोगग्रस्त पौधे की पत्तियां अचानक मुरझाकर झुकने लगती हैं. पौधे का हरापन कम होने लगता है और अंत में पूरा पौधा उकठा रोग से ग्रसित हो जाता है. रोगग्रस्त पौधे की जड़ें स्वस्थ दिखाई देती हैं, लेकिन पिछली शाखायें कम होती हैं. यह रोग पौधे की फली बनने की अवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित करता है. रोगग्रस्त पौधे की फलियों के दाने अपना पूरा आकार प्राप्त नहीं कर पाते हैं और अक्सर सिकुड़ जाते हैं. इससे उपज में भी भारी नुकसान होता है.
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मसूर का पौधा अपने वृद्धिकाल यानी अंकुरण से लेकर बीज बनने तक सभी चरणों में उकठा रोगजनक द्वारा संक्रमण के लिए अति संवेदनशील होता है. इस कवक के बीजाणु की जनन-नलिकाएं मसूर के पौधों की जड़ों पर आक्रमण करके वाहिनी ऊतकों में पहुंचती हैं और शीघ्रता से वृद्धि करने लगती हैं. इसके फलस्वरूप पौधे के कुछ भाग अथवा पूरे पौधे मुरझाने लगते हैं. कवक के एक बार वाहिनी ऊतकों में स्थापित हो जाने के बाद कवक तंतु शीघ्रता से बढ़ने लगते हैं, जिसके कारण कुछ ही दिनों में पौधे मुरझाकर सूख जाते हैं.
फसल की कटाई के बाद रोगी पौधों की पूरी जड़ें या ठूंठ आदि भूमि में ही रह जाते हैं, जिन पर कवक, बीजाणु के रूप में उत्तरजीवी रहते हैं. इस रोग का रोगजनक मृदा में क्लैमाइडोस्पोर के रूप में कई वर्षों तक जीवित रहकर मसूर में रोग उत्पन्न करता रहता है. मसूर, मानव जीवन का आवश्यक एवं मूल्यवान पौष्टिक आहार है, जिसे ज्यादातर दाल के रूप उपयोग किया जाता है. आमतौर पर अनाज के बाद मसूर को फसलचक्र के रूप में उगाया जाता है.
इससे मृदा में जैविक नाइट्रोजन का स्थिरीकरण और कार्बन पृथक्करण के द्वारा मृदा के स्वास्थ्य में सुधार होता है. इसके साथ-साथ अगली फसलों का अच्छा उत्पादन भी प्राप्त होता है. किसान मसूर की फसल में लगने वाले इस विनाशकारी रोग के लक्षणों को पहचानकर अगर समय पर उसका निदान कर दें तो अधिक उत्पादन एवं आय प्राप्त कर सकते हैं. इसके मैनेजमेंट के लिए फोन पर किसान कॉल सेंटर या नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिकों से संपर्क किया जा सकता है.
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