Pradhan Mantri Fasal Bima Yojana: “बीमा कंपनी खेल खेलती रहती है. खुद सोचिए कि क्या कोई कंपनी घाटे में बीमा करेगी? अगर वो प्रीमियम लेंगे 4000 करोड़ तो देंगे 3000 करोड़. इसलिए अब हम खुद मुआवजा देंगे. दो लेगेंगे तो दो और 10 लगेंगे तो 10 देंगे. काहे की कंपनी. आधी रकम नुकसान पर तुरंत दे देंगे और आधी नुकसान का आकलन करने के बाद. प्रधानमंत्री से मिलकर इसकी अनुमति लूंगा...” साल 2020 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज सिंह चौहान ने एक कार्यक्रम में यह बात कही थी. वही शिवराज सिंह चौहान, जो आजकल केंद्रीय कृषि मंत्री हैं और पीएम फसल बीमा योजना की वकालत कर रहे हैं. असल में, कृषि मंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद किसी भी योजना के खिलाफ न बोलने की मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री रहने के दौरान बात तो सही कही थी. इस योजना की शर्तें कंपनियों के पक्ष में इस तरह से झुकी हुई हैं कि फसल खराब होने के बावजूद किसानों को आसानी से मुआवजा नहीं मिलता.
शिवराज सिंह चौहान ने कृषि मंत्री के तौर पर 10 अगस्त 2025 को कहा, "वर्ष 2016 से शुरू हुई फसल बीमा योजना के तहत अब तक 1.83 लाख करोड़ रुपये की क्लेम राशि का वितरण किया गया है, जबकि किसानों ने मात्र 35,864 करोड़ रुपये प्रीमियम की रकम ही दी है. औसतन 5 गुना से अधिक क्लेम भुगतान, यह सरकार की किसान-हितैषी नीति का प्रतीक है." अब सवाल यह है कि क्या कृषि मंत्री का यह बयान सही है? दरअसल, यह प्रीमियम का आधा सच है. बहुत चालाकी से यह बताने की कोशिश की गई है कि प्रीमियम से अधिक क्लेम मिल रहा है. लेकिन ऐसा है नहीं. इसका गुणा-गणित हल करेंगे तो पता चलेगा कि फसल बीमा योजना की असली ‘फसल’ तो कंपनियां काट रही हैं.
दरअसल, फसल बीमा कंपनियों को मिलने वाले प्रीमियम के तीन पार्ट होते हैं. इसका एक हिस्सा किसान, एक हिस्सा राज्य और एक हिस्सा केंद्र सरकार की ओर से जाता है. राज्य और केंद्र सरकार के हिस्से को तकनीकी तौर पर हम प्रीमियम सब्सिडी बोलते हैं. अब यहां चौहान ने सिर्फ किसानों के हिस्से के प्रीमियम का जिक्र किया है, बाकी की बात नहीं की. क्योंकि पूरा प्रीमियम जोड़ते ही पता चलता है कि किसानों के नाम पर तो सिर्फ पर्चा फाड़ा जा रहा है, असल में कमाई तो कंपनियां कर रही हैं. योजना शुरू होने के बाद से अब तक बीमा कंपनियों ने 1,81,575 करोड़ रुपये का क्लेम दिया, जबकि उन्हें 2,56,671 करोड़ रुपये का प्रीमियम मिला. यानी बीमा कंपनियों को 75,096 करोड़ रुपये की कमाई हुई. इसका मतलब यह है कि सालाना 9,387 करोड़ रुपये का फायदा.
सरकारी प्रेस नोट में भी यही बताया जा रहा है कि किसानों ने बहुत कम प्रीमियम दिया जबकि उन्हें क्लेम ज्यादा मिला. यानी सरकार हर जगह प्रीमियम के बाकी दो हिस्सों को छिपा रही है. ऐसे में सवाल यह है कि आखिर प्रीमियम के तौर पर जो राज्यों और केंद्र की ओर से फसल बीमा कंपनियों को पैसा मिल रहा है क्या सरकार उसे पैसा नहीं मानती? वो भी तो देश के टैक्सपेयर्स का पैसा है. आखिर संसद से लेकर बाहर तक सरकार बीमा कंपनियों को मिलने वाले प्रीमियम को क्यों छिपा रही है.
केंद्र, राज्य और किसान मिलकर फसल बीमा कंपनियों को जितना प्रीमियम दे रहे हैं क्या उतने में सरकारें खुद मुआवजा नहीं बांट सकती हैं? यह सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि फसल बीमा कंपनियों के न ब्लॉक में आफिस हैं, न तहसील में और न जिलों में. नुकसान का सर्वे भी सरकार ही कर देती है और फायदा कंपनियों को मिलता है. किसान महा पंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट का कहना है कि जब सारा काम सरकार ही कर देती है तो कंपनियों का क्या काम है? आठ साल में कंपनियों को 2,56,671 करोड़ रुपये का प्रीमियम मिला है. इतने में तो सरकार आसानी से खुद ही मुआवजा दे सकती है.
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