आज के समय में अधिक उपज पाने के लिए रासायनिक खाद का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके कारण मिट्टी की उपजाऊ क्षमता कम होती जा रही है. इतना ही नहीं इसका सीधा असर फसलों के उत्पादन पर पड़ रहा है. इसके पीछे की एक मात्र वजह यह है कि अत्यधिक रासायनिक खादों के इस्तेमाल से मिट्टी में मौजूद ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा कम होती जा रही है. खेत की मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है. इसके लिए बस किसानों को अपने खेतों में कुछ पौधों की खेती करनी होती है. इसे हरी खाद भी कहा जाता है. खेती में हरी खाद का इस्तेमाल किसानों के लिए काफी फायेदमंद होती है.
हरी खाद की खेती करने का मुख्य उद्देश्य खेत की मिट्टी में पोषक तत्वों को बढ़ाना होता है. हरी खाद की खेती में जब पौधे तैयार हो जाते हैं, उस वक्त उसे कल्टीवेटर या रोटावेटर चलाकर खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है. इससे मिट्टी में कार्बन कंटेटं के साथ साथ नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटाश जैसे माइक्रोन्यूट्रिएंटस की मात्रा बढ़ जाती है. ऐसे में खेत में हरी खाद के तौर पर किसान ढैंचा की खेती कर सकते हैं. हालांकि इसके अलावा उड़द, मूंग और लोबिया की खेती कर सकते हैं. इनमें ढैंचा को सबसे बेहतर माना जाता है. ढैंचा की खेती की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि यह तेजी से नाइट्रोजन बनाता है.
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अगर किसान खेत में ढैंचा की खेती करते हैं तो फिर उन्हें खेत में रासायनिक खाद का इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं होती है. प्रति हेक्टेयर ढैंचा की खेती से खेती की मिट्टी को 80-120 किलोग्राम नाइट्रोजन, 15-20 किलोग्राम फॉस्फोरस और 10-12 किलोग्राम पोटाश मिल जाता है. इसलिए इसकी खेती करने के बाद खेत में यूरिया की लागत बेहद कम हो जाती है. यह खारे मिट्टी को भी उपजाऊ बना देती है. इससे फसल उत्पादन बढ़ता है और मिट्टी के स्वास्थ्य में भी सुधार होता है.
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दो फसलों की अवधि के बीच ढैंचा की खेती की जा सकती है. यह फसल 40-50 दिनों में तैयार हो जाती है. फसल तैयार हो जाने के बाद इसे पलटकर खेत की मिट्टी में दबा कर रख दिया जाता है. ढैंचा की खेती के लिए काली और चिकनी मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है. हालांकि खाद के तौर पर किसान किसी भी प्रकार की मिट्टी में इसकी खेती कर सकते हैं. जल जमाव की स्थिति में भी इसका अच्छा विकास होता है. हालांकि उचित पैदावार के लिए खरीफ के सीजन में इसकी खेती करना बेहतर माना जाता है. इसके बीजों को अंकुरण के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती है. मई के आखिरी सप्ताह से लेकर जून के दूसरे सप्ताह तक इसकी खेती करना बेहतर माना गया है.