भारत सरकार ने एक बहुत बड़ा और खास सपना देखा था - खाने के तिलहन और दलहन के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने का. इसके लिए एक सीधा-सादा प्लान बनाया गया. धान की खेती का क्षेत्र लगभग 50 लाख हेक्टेयर कम किया जाए और उस जमीन पर दालों और तिलहनी फसलों को उगाया जाए. इस योजना के पीछे की सोच बहुत गहरी थी. पहला, हर साल हमें लाखों करोड़ रुपये का तेल और दालें विदेशों से खरीदनी पड़ती हैं, जिससे देश का पैसा बाहर जाता है. दूसरा, धान की फसल में बहुत ज्यादा पानी लगता है, जिससे जमीन के नीचे का पानी तेजी से खत्म हो रहा है, खासकर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में. तीसरा, लगातार एक ही फसल उगाने से मिट्टी की ताकत भी कम हो रही है. लेकिन जब इस साल खरीफ सीजन के नतीजे सामने आए, तो वे उम्मीदों से बिलकुल उल्टे थे.
दालों और तिलहन की खेती का क्षेत्र बढ़ने के बजाय, इस साल धान की खेती का रकबा बढ़कर 438.51 लाख हेक्टेयर तक पहुxच गया है, जो न केवल पिछले साल के 430.06 लाख हेक्टेयर से 9.45 लाख हेक्टेयर अधिक है, बल्कि धान की सामान्य खेती क्षेत्र (403.09 लाख हेक्टेयर) से 8% से भी ज़्यादा है. यह बढ़ोतरी उस तस्वीर के बिल्कुल विपरीत है जो दलहन और तिलहन में दिख रही है. एक तरफ जहां तिलहन की खेती का रकबा 5% घट गया है, वहीं दलहन के रकबे में सिर्फ़ मामूली सी बढ़त हुई है.
यह दिखाता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद, किसान धान की तरफ़ ज़्यादा आकर्षित हो रहे हैं. यह देखकर केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी गहरी नाराजगी जताई और कहा कि अगर यही हाल रहा तो दलहन और तिलहन आत्मनिर्भर भारत' का सपना सिर्फ सपना ही रह जाएगा.
जब देश की नीति फसल विविधीकरण की है, तो किसान धान की ओर और क्यों खिंचते चले गए? इस सवाल का जवाब हाल ही में भारत सरकार के कृषि सचिव देवेश चतुर्वेदी ने दिया, और उन्होंने सीधे तौर पर राज्य सरकारों की नीतियों की ओर इशारा किया. उन्होंने स्पष्ट कहा कि जब तक राज्य धान पर एमएसपी के ऊपर बोनस का 'चुंबकीय आकर्षण' बनाए रखेंगे, तब तक किसानों को दलहन-तिलहन की ओर मोड़ना कठिन हो जाता है.
उनका इशारा साफ था कि बोनस को सही जगह लगाएं. उनका कहना है कि राज्य सरकारों को यह साफ निर्देश दिया जाना चाहिए कि अगर वे किसानों को कोई बोनस या प्रोत्साहन राशि देना चाहती हैं, तो वह धान पर नहीं, बल्कि दलहन, तिलहन या दूसरी वैकल्पिक फसलों पर दें. अगर ₹900 का बोनस धान की जगह अरहर या सरसों पर मिले, तो किसान खुद-ब-खुद इन फसलों की ओर आकर्षित होगा.
एक किसान का गणित भी होता है जिसमें वही फसल उगाना चाहता है जिसमें उसे कम से कम जोखिम और ज्यादा से ज्यादा फायदा दिखे. यहीं पर धान की फसल बाकी सभी फसलों पर भारी पड़ जाती है, और इसकी सबसे बड़ी वजह है राज्यों का 'बोनस प्रेम'. केंद्र सरकार फसलों के लिए एक न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तय करती है. यह एक तरह की गारंटी है कि अगर बाजार में फसल का दाम गिर भी जाए, तो सरकार किसान से उस फसल को एक तय कीमत पर खरीदेगी. लेकिन कई राज्य सरकारें, खासकर छत्तीसगढ़ और तेलंगाना, अपने राजनीतिक फायदे के लिए धान पर MSP के ऊपर एक बड़ी रकम बोनस के तौर पर देती हैं.
अगर केंद्र ने धान का MSP ₹2200 प्रति क्विंटल तय किया है और राज्य सरकार उस पर ₹900 का बोनस दे दे, तो किसान को धान का भाव ₹3100 प्रति क्विंटल मिलता है. वहीं, अरहर या मूंग जैसी दालों पर उसे सिर्फ MSP के आसपास का ही भाव मिलने की उम्मीद होती है. ऐसे में कोई भी किसान धान ही उगाना चाहेगा. यह बोनस धान की खेती को एक 'सुपर-सेफ' और 'सुपर-प्रॉफिटेबल' विकल्प बना देता है, जिसके आगे कोई दूसरी फसल टिक ही नहीं पाती है.
केंद्र सरकार भविष्य को देख रही है. वह हर साल खाने के तेल के आयात पर खर्च होने वाले डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की विदेशी मुद्रा बचाना चाहती है. इसलिए, वह चाहती है कि किसान अलग-अलग तरह की फसलें उगाएं. राज्यों का ध्यान अक्सर तात्कालिक राजनीतिक लाभ पर होता है. धान उगाने वाले किसान एक बहुत बड़ा और संगठित वोट बैंक हैं. उन्हें MSP पर बोनस देकर खुश रखना चुनाव जीतने का एक आसान तरीका माना जाता है. इस प्रक्रिया में, वे देश के लंबे समय के लक्ष्यों और पर्यावरण की चिंताओं को अनदेखा कर देते हैं. इसी को 'बोनस पॉलिटिक्स' कहा जा रहा है, जो देश की आत्मनिर्भरता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन गई है.
भारत में गेहूं और धान के लिए सरकारी खरीद का एक बहुत मजबूत और दशकों पुराना ढांचा बना हुआ है. किसान को यह पक्का यकीन होता है कि उसकी फसल पैदा होते ही सरकारी एजेंसियां उसे खरीद लेंगी और पैसा सीधा खाते में आ जाएगा. इसके ठीक उल्टा, दालों और तिलहन के लिए खरीद का नेटवर्क आज भी बहुत कमजोर है. किसान को हमेशा यह डर सताता है कि अगर उसने मूंग या सोयाबीन उगा भी लिया, तो उसे बेचने के लिए बाजार में भटकना पड़ेगा और शायद सही दाम भी न मिले. यह अनिश्चितता उसे जोखिम लेने से रोकती है. इस लिए कृषि मंत्री शिवराज सिंह ने दलहन तिलहन मिशन में दलहन तिलहन की प्रोसेसिंग की बात कही है जिसके लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए काम करना होगा.
किसानों का दालों और तिलहन से दूर भागने का कारण सिर्फ धान का आकर्षण ही नहीं है, बल्कि इन फसलों के साथ जुड़ी अपनी कुछ व्यावहारिक समस्याएं भी हैं, जिन्हें दूर करने की कोशिशें अभी तक कामयाब नहीं हुई हैं. जैसा कि बताया गया, खरीद की गारंटी न होने के कारण दालों और तिलहन की कीमतें पूरी तरह बाजार के भरोसे रहती हैं. जिस साल पैदावार अच्छी होती है, बाजार में फसल की आवक बढ़ जाती है और कीमतें धड़ाम से नीचे गिर जाती हैं. इससे किसानों को लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
धान की फसल के लिए जितने उन्नत, अधिक पैदावार वाले और बीमारी से लड़ने वाले बीज उपलब्ध हैं, उतने दालों और तिलहन के लिए नहीं हैं. किसानों को आज भी पुरानी किस्मों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे पैदावार कम होती है और मुनाफा घट जाता है. एक तरफ धान की फसल है, जो किसान को एक सुनिश्चित आमदनी का वादा करती है. वहीं दूसरी तरफ दालों और तिलहन की फसलें हैं, जिनमें अनिश्चितता बनी रहती है. किसान यह जोखिम उठाने के लिए तभी तैयार होगा, जब उसे धान से भी ज्यादा स्पष्ट और बड़ा आर्थिक लाभ दिखाई दे.