
सरकार की नीयत तो साफ है—नकली बीजों का सफाया करना, और इसीलिए सीड बिल 2025 लाया जा रहा है. लेकिन इस जोश में जमीनी हकीकत को नहीं भूलना चाहिए. बीज कोई फैक्ट्री में बनने वाला लोहे का 'नट-बोल्ट' नहीं, बल्कि एक 'जीवित चीज' है. इसे खेत की मिट्टी से लेकर रसोई की थाली तक, हर कदम पर हर कदम पर अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है. अगर कानून का डंडा सिर्फ बीज बनाने वाले पर चलाया गया और मौसम की मार या सिस्टम की कमी को नजरअंदाज किया गया, तो यह बिल वरदान के बजाय गले की हड्डी बन जाएगा.
सच्चाई यह है कि बीज बेचने वाले की जिंदगी आसान नहीं होती. एक बार बीज का पैकेट दुकान से बिका, तो कंपनी की सांसें तब तक हलक में अटकी रहती हैं, जब तक किसान की फसल सही-सलामत कटकर घर न आ जाए. कानून बनाते समय इस कड़वे सच को समझना बहुत जरूरी है.
बीज बिकने के बाद शिकायतों की झड़ी लग जाती है. पहले—'साहब, जमाव नहीं हुआ', जम गया तो 'बढ़वार नहीं', फिर 'कल्ले कम फूटे' और आखिर में 'दाने पतले' रह गए. यहां तक कि मंडी में 'टूटन' और रसोई में 'स्वाद' का ठीकरा भी बीज वाले के सिर फूटता है. असलियत में, बीज से फसल बनने तक मौसम और मिट्टी जैसे हजारों कारक काम करते हैं, लेकिन दोषी सिर्फ कंपनी को माना जाता है.
नए बिल में इतनी सख्त सजा है कि कंपनियां डरी हुई हैं. क्या इस कानून में इस बात की गुंजाइश है या क्या कानून यह समझेगा कि हर गलती बीज की नहीं होती? अगर हर चरण की जिम्मेदारी सिर्फ कंपनी पर डाल दी गई, तो डर के मारे कोई नई वैरायटी बाजार में लाने का जोखिम ही नहीं उठाएगा."
इस बिल में सबसे बड़ी कमी यह है कि यह 'कुदरत के खेल' को पूरी तरह भूल जाता है. खेती किसी एसी कमरे या लैब में नहीं, बल्कि खुले आसमान के नीचे होती है. अगर फसल अच्छी नहीं हुई, तो उसका सारा ठीकरा बीज बेचने के सिर फोड़ देना सरासर नाइंसाफी है. अच्छी पैदावार सिर्फ बीज पर नहीं, बल्कि मिट्टी की सेहत, मौसम के मिजाज, पानी और किसान की मेहनत पर भी निर्भर करती है.
अब मान लीजिए, बीज एकदम 'ए-वन' है, लेकिन अगर बुवाई के समय नमी कम रह गई या बारिश ने धोखा दे दिया, तो इसमें बीज बेचारा क्या करेगा? लेकिन नए बिल के कड़े नियम (जैसे VCU ट्रायल) ऐसा माहौल बना रहे हैं कि अगर रिजल्ट नहीं मिला, तो बीज बेचने वाला ही दोषी है. कानून में यह साफ होना चाहिए कि अगर मौसम की मार या देख-रेख की कमी से फसल बिगड़ी है, तो बेचने वाले को 'बली का बकरा' न बनाया जाए. हर नाकामी को 'नकली बीज' मान लेना विज्ञान के खिलाफ है."
आज अगर देश के दूर-दराज के गांवों तक भी उन्नत बीज पहुंच रहे हैं, तो इसमें प्राइवेट कंपनियों का बहुत बड़ा योगदान है. सरकारी बीज निगमों की अपनी सीमाएं हैं, उनका सिस्टम अक्सर इतना सुस्त होता है कि किसान उन पर भरोसा नहीं कर पाते. सरकारी गोदामों में या तो बीज मिलता नहीं, और मिले तो क्वालिटी 'भगवान भरोसे' होती है.
दूसरी तरफ, प्राइवेट कंपनियां कॉम्पिटिशन में टिकने के लिए लगातार रिसर्च करती हैं और किसान के दरवाजे तक बढ़िया हाइब्रिड बीज पहुंचाती हैं. उन्हें पता है कि अगर एक बार खराब बीज बेचा, तो अगले साल बाजार से बाहर हो जाएंगे. अगर नए कानून के जरिए इन कंपनियों पर बहुत ज्यादा सख्ती की गई, तो उनका काम करना दूभर हो जाएगा. अगर प्राइवेट सेक्टर पीछे हट गया, तो सरकारी सिस्टम में इतना दम नहीं है कि वह अकेले पूरे भारत के बीजों की मांग को पूरा कर सके."
इस बिल को लेकर जो सबसे बड़ा डर सता रहा है, वह है—भ्रष्टाचार. हमारे देश में अच्छे से अच्छे कानून का बंटाधार तब होता है जब वह सरकारी फाइलों से निकलकर बाबुओं के हाथ में आता है. बिल में 'सीड इंस्पेक्टर' को बेहिसाब ताकत दी गई है—वह कभी भी गोदाम में घुस सकता है, रजिस्टर चेक कर सकता है और यहां तक कि ताले-दरवाजे भी तोड़ सकता है .सुनने में यह नकली बीज रोकने के लिए जरूरी लगता है, लेकिन जमीनी हकीकत हम सब जानते हैं.
अक्सर देखा गया है कि कृषि विभाग के अधिकारी, जिनका असली काम किसानों को नई तकनीक सिखाना होना चाहिए, वे ऐसे सख्त कानूनों का इस्तेमाल सिर्फ 'धन उगाही' के लिए करते हैं. छोटे दुकानदारों को नियमों का डर दिखाकर पैसे ऐंठे जाते हैं. जाहिर है, जब कानून सख्त होता है, तो रिश्वत का 'रेट' भी बढ़ जाता है. अगर व्यापारी को रिश्वत देनी पड़ेगी, तो वह यह खर्चा अपनी जेब से नहीं भरेगा, बल्कि बीज के दाम बढ़ाकर किसान से ही वसूलेगा. इसलिए, बिल का स्वागत है, लेकिन यह देखना होगा कि कड़े कानून के नाम पर 'सरकारी गुंडागर्दी' न शुरू हो जाए.