देश में किसानों की आवाज उठाने वाले कई बड़े नेता रहे हैं, लेकिन किसान अपना मसीहा चौधरी चरण सिंह को मानते हैं. वो प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे थे, लेकिन आज भी याद किए जाते हैं किसान नेता के तौर पर. उनके जन्मदिन को इसीलिए किसान दिवस के तौर पर मनाते हैं. पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री का कहना है कि किसानों के हक के लिए चरण सिंह ने उस वक्त के सर्वमान्य नेता जवाहरलाल नेहरू से टक्कर ले ली थी. किसान तक से बातचीत में उन्होंने इस वाकये को साझा किया.
शास्त्री कहते हैं, "यदि मुझे ठीक से स्मरण है तो 1959 में नागपुर में कांग्रेस का खुला अधिवेशन हुआ था. उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरू सर्वमान्य नेता हो चुके थे. पंडित नेहरू सोवियत रूस की अपनी यात्रा के दौरान वहां के संयुक्त फार्मों (सहकारी खेती) की व्यवस्था से अत्यंत प्रभावित हो गए थे. इसलिए उन्होंने वापस आकर भारत में सहकारी खेती को विधायी रूप से लागू करने का निर्णय कर लिया. उस प्रस्ताव को नेहरू जी ने खुले अधिवेशन में सबसे सामने पेश किया.
रोचक बात यह है कि भारत के जितने भी अन्य राज्य थे, प्राय: सबके मुख्यमंत्री इस बात से सहमत नहीं थे. दूसरे मंत्री भी राजी नहीं थे. विशेषकर वो जो ग्रामीण क्षेत्रों से आए हुए थे. जितने भी किसान नेता थे चाहे वो किसी भी स्तर के थे, कांग्रेस में थे या विपक्ष में थे. परंतु किसी का साहस नहीं हुआ कि पंडित नेहरू के विपरीत वो कोई बात कह दें. फिर किसानों के हितों के लिए विरोध की आवाज उठाने की यह पहल चौधरी चरण सिंह ने अपने हाथ में ली.
कांग्रेस के इसी खुले अधिवेशन में लगभग सवा घंटे तक चरण सिंह ने सहकारी खेती के विरुद्ध ऐसे अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए कि सारा सम्मेलन चौधरी चरण सिंह की बात से सहमत हो गया. ऐसे में पंडित नेहरू को लगा कि चरण सिंह बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. लेकिन पंडित नेहरू यह प्रस्ताव चूंकि खुद पेश कर चुके थे तो उन्होंने उसको वापस तो नहीं लिया, लेकिन अपने हाई कमान से कहा कि आप इसे केवल सैद्धांतिक रूप से पारित कर दीजिए, पर मैं आपसे वादा करता हूं कि इसको लागू नहीं करुंगा.
उस समय चौधरी चरण सिंह उत्तर प्रदेश में भी वरिष्ठता के मामले में दूसरे या तीसरे स्तर के नेता थे. ऐसे में किसानों के लिए उस दौर के सबसे बड़े नेता पंडित नेहरू के खिलाफ साहस बटोर कर उन्हें चुनौती देना और उस प्रस्ताव को वापस करवाना, ये कोई मामूली उपलब्धि नहीं है.
राष्ट्रीय किसान आयोग के पहले अध्यक्ष रहे शास्त्री ने कहा कि चौधरी चरण सिंह बहुत साधारण किसान परिवार में पैदा हुए थे. उन्होंने उस समय के जमींदारों का, उस वक्त के व्यापारियों, पूंजीपतियों और अंग्रेजी शासन के शोषण, अत्याचार को अपने परिवार के संदर्भ में बखूबी देखा था. उनके पिता भूमिहीन किसान थे. एक जमींदार ने कुछ जमीन उनको दी थी. वह भी आठ-दस साल बाद ले ली गई थी.
फिर उन्होंने अपनी मेहनत से कुछ जमीन खरीदी. उसमें किसानी की. वो बहुत छोटे किसान थे. लगभग जैसा हमारा परिवार था. उसी स्तर का उनका परिवार था. उनके हिस्से में लगभग डेढ़ या दो एकड़ कुल जमीन आती थी. उस समय जब इतनी कम जनसंख्या थी. इसलिए उन्होंने संवेदनशीलता को जीवन भर बनाए रखा. यह उनकी खूबी की बात है. अन्यथा हम आजकल देखते हैं कि राजनेता उभरते हैं बहुत साधारण स्तर से, लेकिन जब वो पदों पर चले जाते हैं तब सब चीजें भूल जाते हैं.
शास्त्री ने कहा कि चौधरी चरण सिंह 1952 में जब गोविन्द बल्लभ पंत के साथ उत्तर प्रदेश में मंत्री बने, बाद में वो डॉ. संपूर्णानंद के साथ भी रहे. तब जितनी योग्यता, तत्परता और प्रतिबद्धता से उन्होंने भूमि सुधार कानूनों को बनवाया और लागू किया शायद ही ऐसा किसी और ने किया हो. वो खुद राजस्व के जाने माने वकील थे. जब उन्होंने गाजियाबाद में अपनी प्रेक्टिस शुरू की तब वो राजस्व मामलों को देखते थे.
ऐसे में उन्हें जमीन से संबंधित दर्द का पता था. उसको जानते हुए जमींदारी उन्मूलन का मामला रहा हो अथवा भूमि के अधिकार दिलवाए गए हों. इतनी आसान, इतनी सीधी और पारदर्शी व्यवस्था किसी भी राज्य ने नहीं की थी. मुझे याद है कि जो लगान किसान से वसूल की जाती थी उसका रिकॉर्ड दर्ज रहता था. तो उन्होंने यह विकल्प दे दिया था कि किसान यदि दस वर्ष का लगान जमा कर देगा तो बुवाई के तौर पर जो भूमि उसके पास है, उस जमीन का अधिकार स्थायी रूप से उसका हो जाएगा.
शास्त्री कहते हैं कि चौधरी चरण सिंह पैसे वालों की चालाकी को देखते हुए किसानों के हितों को लेकर काफी सजग थे. जब उन्होंने देखा कि बहुत सारे किसानों को लगान के जरिए जमीन का अधिकार नहीं मिला तो भूमि सीमा कानून यानी लैंड सीलिंग एक्ट लागू किया. यह कानून जिस तरह से और जितना प्रभावी तरीके से उत्तर प्रदेश में लागू हुआ, उतना किसी भी सूबे में नहीं हुआ. इस कानून के तहत उत्तर प्रदेश में प्रति परिवार अधिकतम 18 एकड़ भूमि जोत की सीमा रखी गई थी.
उसके साथ बाद में यह भी कर दिया था कि किसी के पास वर्तमान में जितनी जमीन का स्वामित्व है, उसके ऊपर कुल 12.5 एकड़ ही हो सकती है. इसका मतलब यह है कि यदि आपके पास 10 एकड़ है तो आप 2.5 एकड़ से ज्यादा नहीं खरीद सकते थे. वो इस बात के प्रति भी सजग थे कि कालांतर में पैसे वाले लोग फिर से जमीन को हथिया लेंगे और बड़ी जमींदार फिर से स्थापित हो जाएगी. यह अपने आप में बहुत क्रांतिकारी विधान था.
पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री शास्त्री ने बताया कि जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसमें चौधरी चरण सिंह पहले गृह मंत्री बने. बाद में किसी कारण से कुछ समय बाहर रहे. फिर दोबारा वित्त और उप प्रधानमंत्री बने. उस समय भी गन्ने के बकाया और दाम की समस्या थी. उस वक्त उन्हीं की पहल पर केंद्र सरकार ने एक विधेयक पारित किया था. उसमें यह प्रावधान था कि यदि तय समय में कोई चीनी मिल किसानों के पैसे का भुगतान नहीं करती है तो सरकार के पास यह अधिकार होगा कि वो उस चीनी मिल का अधिग्रहण कर ले. सरकार उसको चलाए और किसानों का बकाया वापस करे.
उत्तर प्रदेश में गन्ना क्रय अधिनियम पहले से ही लागू था, जिसमें यह व्यवस्था है कि 14 दिन के अंदर भुगतान होगा और यदि देरी हुई तो 12 फीसदी ब्याज दिया जाएगा. अगर उसके बाद भी पैसा नहीं मिला तो राज्य सरकार के पास उस विधेयक में आज भी यह अधिकार है कि ऐसी मिलों की सारी संपत्ति को कुर्क करके पेमेंट करे. कुर्की में चीनी का स्टॉक, मिल और मालिक की दूसरी संपत्तियां भी शामिल की जाएं. हालांकि, उस कानून का सरकार पालन नहीं कर रही है. यह बड़ी बिडंबना है.
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