
आज 23 दिसंबर है, पूरा देश 'किसान दिवस' मना रहा है. यह दिन भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के सबसे बड़े नेता चौधरी चरण सिंह की जयंती के रूप में मनाया जाता है. अन्नदाता के अगुवा चौधरी चरण सिंह की सादगी ने लोगों का दिल जीत लिया. उनकी इच्छाशक्ति ऐसी कि इतिहास बदल दिया. चौधरी साहब का एक ही मूलमंत्र था-देश की समृद्धि का रास्ता गांवों के खेत-खलिहानों से होकर गुजरता है.
1902 में मेरठ के एक साधारण 'बटाईदार' परिवार में जन्मे चौधरी साहब ने गरीबी और किसानों की लाचारी को बहुत करीब से देखा था. यही वजह थी कि उन्होंने अपना पूरा जीवन शोषितों और वंचितों को उनका हक दिलाने के लिए समर्पित कर दिया. वे गांधीजी के 'ग्राम स्वराज' के सच्चे समर्थक थे. एक प्रबुद्ध विचारक के तौर पर उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक खेत में पसीना बहाने वाला अन्नदाता मजबूत नहीं होगा, तब तक भारत सही मायनों में आत्मनिर्भर नहीं बन सकता.
उनकी सादगी और बेदाग ईमानदारी ही उनकी सबसे बड़ी ताकत थी, जिसने उन्हें सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठने के बाद भी हमेशा मिट्टी और किसानों से जोड़े रखा. चौधरी साहब ने जमींदारी प्रथा का अंत किया और चकबंदी जैसे क्रांतिकारी सुधार लागू किए ताकि छोटे किसानों को उनका अधिकार मिल सके. उन्होंने किसानों को सिखाया कि व्यवस्था से कैसे लोहा लिया जाता है.
उत्तर प्रदेश में भूमि सुधारों की सबसे बड़ी बाधा पुराने राजस्व रिकॉर्ड और पटवारियों की मनमानी थी. चौधरी चरण सिंह ने अनुभव किया कि पटवारी किसानों के अधिकारों के साथ खिलवाड़ करते थे. इस व्यवस्था को बदलने के लिए उन्होंने 'लेखपाल' पद का सृजन किया और पटवारियों की शक्तियों में कटौती की. जब 27,000 पटवारियों ने हड़ताल और सामूहिक इस्तीफे के जरिए सरकार को झुकाने की कोशिश की, तो चौधरी साहब ने झुकने के बजाय उनके इस्तीफे स्वीकार कर लिए और नए लेखपालों की नियुक्ति की, जिससे ग्रामीण प्रशासन में पारदर्शिता आई.
चौधरी चरण सिंह ने बिखरे हुए खेतों की समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए 'जोत चकबंदी अधिनियम' लागू किया, जिसने खेती को घाटे से उबारकर मुनाफे का सौदा बना दिया. चकबंदी के जरिए अलग-अलग जगहों पर पड़े छोटे-छोटे टुकड़ों को एक बड़े 'चक' में बदल दिया गया, जिससे न केवल सिंचाई और आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल आसान हुआ, बल्कि मेड़ों के झगड़े खत्म हुए और कीमती जमीन की भी बचत हुई.
इसके साथ ही, उन्होंने 1958 में 'हदबंदी' यानी सीलिंग कानून लाकर सामाजिक न्याय की मिसाल पेश की. इस कानून के तहत जमीन रखने की अधिकतम सीमा 12.5 एकड़ तय कर दी गई, ताकि खेती की जमीन कुछ रईसों के पास जमा न रहे. इस क्रांतिकारी कदम से बची हुई फालतू जमीन को भूमिहीन मजदूरों और गरीब किसानों में बांटकर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा गया.
चौधरी चरण सिंह के क्रांतिकारी भूमि सुधारों ने समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े 'अधिवासी' और 'शिकमी काश्तकारों' के जीवन में आत्मसम्मान का सूर्योदय किया. 1954 के ऐतिहासिक संशोधन के जरिए लगभग 50 लाख कमजोर वर्ग के किसानों को 'सीरदार' बनाकर उन्हें उनकी झोपड़ियों और खेतों का स्थायी मालिकाना हक सौंप दिया गया, जो पहले केवल जमींदारों की दया पर निर्भर थे.
इसके साथ ही, चौधरी साहब ने 'अनिवार्य सहकारी खेती' के विचार को सिरे से खारिज करते हुए 'व्यक्तिगत स्वामित्व' की वकालत की. उनका दृढ़ विश्वास था कि जब किसान अपनी निजी जमीन का मालिक होता है, तो वह अधिक मेहनत करता है, जिससे न केवल प्रति एकड़ पैदावार बढ़ती है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर भी पैदा होते हैं. उन्होंने बड़े सरकारी फार्मों के बजाय छोटे किसानों की आत्मनिर्भरता और कुटीर उद्योगों के माध्यम से ग्राम स्वराज की नींव मजबूत की.
चौधरी चरण सिंह किसानों पर किसी भी आर्थिक बोझ के सख्त खिलाफ थे और उनकी राजनीतिक दृढ़ता का सबसे बड़ा उदाहरण 1962 में दिखा, जब उन्होंने मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्त द्वारा 'लगान' में 50 प्रतिशत की भारी वृद्धि के प्रस्ताव को अकेले दम पर रुकवा दिया. उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि किसान और कर सहने की स्थिति में नहीं हैं और अपनी बात मनवाने के लिए वे त्यागपत्र देने तक को तैयार हो गए, जिसके आगे सरकार को झुकना पड़ा.
इसी इच्छाशक्ति का परिणाम था कि उत्तर प्रदेश ने भूमि सुधारों में बिहार जैसे राज्यों को बहुत पीछे छोड़ दिया. जहां बिहार में 'पुनर्ग्रहण' जैसे कानूनी झोल के कारण जमींदारों ने खुद खेती करने के बहाने लाखों किसानों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया, वहीं चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेश में ऐसी किसी भी चालाकी की गुंजाइश नहीं छोड़ी. उन्होंने बिचौलियों का जड़ से सफाया कर किसानों को उनकी मिट्टी का असली हकदार बनाया, जिससे उत्तर प्रदेश कृषि क्षेत्र में देश का मार्गदर्शक बन गया. इसी दूरदर्शिता ने उन्हें करोड़ों किसानों का सर्वमान्य नेता और 'अन्नदाता का अगुवा' बना दिया.