हर साल मॉनसून के खत्म होते ही और सर्दियों के आते ही पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में पराली जलाने के मामले बढ़ जाते हैं. इस वजह से उत्तर भारत को गंभीर वायु प्रदूषण संकट का सामना करना पड़ता है. इन राज्यों में किसान कटाई के बाद धान के अवशेषों को जलाते हैं जो कि पर्यावरण के लिए हानिकारक होती है. इस तरह जलाने से जहरीले तत्व निकलते हैं, जिससे हवा की क्वालिटी बिगड़ती है और सांस संबंधी बीमारियां होती हैं, खासकर दिल्ली-एनसीआर जैसे शहरी इलाकों में. वहीं इससे अलग हिमाचल प्रदेश में वैज्ञानिकों ने इस समस्या का एक ऐसा समाधान निकाला है जो उत्तर भारत को प्रेरित कर सकता है.
हिमाचल के सिरमौर जिले के धौला कुआं में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के वैज्ञानिकों ने खेत की जुताई या रासायनिक खाद का उपयोग किए बिना आलू उगाने के लिए धान की पराली का सफलतापूर्वक उपयोग किया है. यह कृषि तकनीक न केवल पर्यावरण को होने वाले नुकसान को रोकती है बल्कि खेती की लागत को भी कम करती है. इससे खेती और ज्यादा टिकाऊ और फायदेमंद बन जाती है. शोधकर्ताओं ने आलू की कुफरी नीलकंठ किस्म के साथ पिछले दिनों एक प्रयोग किया है. उन्होंने आलू की इस किस्म को धान की पराली की मोटी परत के नीचे उगाया. खेत की जुताई करने के बजाय, उन्होंने धान की कटाई के बाद बची हुई नम मिट्टी पर सीधे आलू के बीज डाले और उन्हें लगभग नौ इंच पराली से ढक दिया.
मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने और पौधों की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए, उन्होंने गाय के गोबर, गोमूत्र, पानी और फलियों के आटे से बने जैव-उर्वरक घनजीवामृत का छिड़काव किया. पराली ने प्राकृतिक गीली घास की तरह काम किया जिससे नमी बनी रही और सिंचाई की जरूरत काफी कम हो गई. पूरे फसल चक्र के दौरान सिर्फ तीन बार पानी देने की जरूरत पड़ी और अगर पर्याप्त बारिश हुई तो उससे भी बचा जा सकता है. तीन महीने के भीतर, फसल कटाई के लिए तैयार हो गई.
यह टेक्निक बहुत सफल साबित हुई, जिससे आधे हेक्टेयर भूमि पर बेहतरीन परिणाम मिले. धान की पराली खेत में प्राकृतिक रूप से सड़ गई जिससे मिट्टी को जरूरी पोषक तत्व हासिल हुए. वैज्ञानिकों ने पाया कि दो हेक्टेयर धान के खेत की पराली का उपयोग एक हेक्टेयर भूमि पर आलू उगाने के लिए कुशलतापूर्वक किया जा सकता है. प्रयोग ने महत्वपूर्ण लागत बचत भी प्रदर्शित की क्योंकि किसानों को अब जुताई के लिए ईंधन, महंगे उर्वरकों या सिंचाई पर खर्च करने की आवश्यकता नहीं थी.
इस टेक्निक के आर्थिक फायदे तो हैं ही साथ ही साथ पर्यावरण संबंधी भी बहुत से लाभ हैं. पराली जलाने से वायु प्रदूषण काफी बढ़ जाता है. इससे कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर जैसी हानिकारक गैसें निकलती हैं. वहीं आलू की खेती के लिए धान की पराली का प्रयोग करके न सिर्फ प्रदूषण को कम किया जा सकता है बल्कि हवा की क्वालिटी को भी बेहतर बनाया जा सकता है. इसके अलावा मिट्टी की सेहत भी बेहतर होती है. इससे रासायनिक उर्वरकों के कारण होने वाले क्षरण पर लगाम लगती है. साथ ही इस विधि से सिंचाई और सिंथेटिक इनपुट पर निर्भरता को कम होती है जिससे जलवायु के लिए फायदेमंद खेती को बढ़ावा मिलता है.
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