मक्का की खेती को लेकर अब किसानों का रुझान बढ़ने लगा है. क्योंकि इसका इस्तेमाल फूड, फीड और फ्यूल तीनों में हो रहा है. इससे इथेनॉल बनने लगा है, जिससे अब इसे एनर्जी क्रॉप भी कहा जाने लगा है. इस साल मक्का की बंपर बुवाई हुई है. इसकी बुवाई 87.27 लाख हेक्टेयर में हो चुकी है जो पिछले वर्ष के मुकाबले 4.41 लाख हेक्टेयर अधिक है. लेकिन सिर्फ बुवाई से ही उत्पादन अच्छा हो जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है. क्योंकि यह फसल रोगों के प्रति संवेदनशील है. कृषि वैज्ञानिक आदित्य भारती, एमए अनवर, राम निवास और नेहा कुमारी ने मक्के में लगने वाले सबसे खतरनाक रोगों के समाधान की जानकारी दी है. जिसे समझकर किसान अच्छी पैदावार ले सकते हैं.
पूरी दुनिया में मक्का सबसे व्यापक रूप से उगाई जाने वाली फसल है. लेकिन, इसमें अगर फ्यूजेरियम यानी तना गलन रोग होता है तो फसल के 100 फीसदी तक खत्म होने का खतरा पैदा हो जाता है. इसलिए इसे मक्का की फसल के लिए काल माना जाता है. हालांकि, सामान्य तौर पर इससे उपज में हानि 10 से 42 प्रतिशत तक होती है. कुछ क्षेत्रों में ही 100 प्रतिशत तक नुकसान होता है. फसल में यह रोग लगने के लिए 26 से 37 डिग्री सेल्सियस तापमान बहुत ही अनुकूल होता है.
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इस रोग से पौधे की पत्तियां स्वस्थ हरे रंग से हल्के हरे रंग में बदल जाती हैं और निचला डंठल पीला हो जाता है. पौधों की जड़ों और निचली गांठों पर इसके लक्षण रोग की प्रमुख पहचान है. जब पौधों के डंठल को विभाजित किया जाता है, तो आंतरिक डंठल हल्के गुलाबी रंग का दिखता है, लेकिन डंठल में या उस पर काले धब्बे, कवक के कारण नहीं होते हैं. निचोड़ने पर डंठल स्पंजी या गद्देदार लगते हैं और निचली गांठ को आसानी से कुचला जा सकता है.
पिछली फसल के अवशेषों को पूरी तरह से नष्ट करना और गहरी जुताई करना लाभकारी होता है. फसलचक्र अपनाकर भी इससे निजात पाई जा सकती है. नाइट्रोजन की कम मात्रा तथा पोटैशियम की अधिक मात्रा के साथ उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करें.
कवक रोगों की वजह से मक्का की फसल काफी प्रभावित होती है. इनमें से उत्तरी झुलसा या टर्सिकम लीफ ब्लाइट महत्वपूर्ण रोगों में से एक है. इसका संक्रमण 17 से 31 डिग्री सेल्सियस तापमान, गीली और आर्द्र अवधि के मौसम मेंहोता है. यह रोग प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करता है. इसकी वजह से उपज में 28 से 91 प्रतिशत तक की कमी आती है.
संक्रमण के लगभग 1-2 सप्ताह बाद, पहले छोटे हल्के हरे से भूरे रंग के धब्बे के रूप में लक्षण दिखाई देते हैं. अति संवेदनशील पत्तियों पर यह रोग सिगार के आकार का एक से छह इंच लंबे स्लेटी भूरे रंग के घाव जैसा होता है. जैसे-जैसे रोग विकसित होता है, घाव भूसी सहित सभी पत्तेदार संरचनाओं में फैल जाता है. इसके बाद गहरे भूरे रंग के बीजाणु उत्पन्न होते हैं. घाव काफी संख्या में हो सकते हैं, जिससे पत्ते अंत में नष्ट हो जाते हैं. इसके कारण उपज का बड़ा नुकसान होता है.
उत्तरी झुलसा को कंट्रोल करने के लिए सबसे ज्यादा प्रभावी तरीका प्रतिरोधी किस्में हैं. मक्का की समय पर बुवाई करने से उत्तरी झुलसा (टीएलबी) रोग से होने वाले नुकसान से बचा जा सकता है. मक्का के अवशेषों को नष्ट करने के बाद फसल को संक्रमित करने वाले उपलब्ध उत्तरी झुलसा (टीएलबी) रोगजनक की मात्रा घटती है. एक से दो वर्ष का फसल चक्र अपनाने और जुताई द्वारा पुरानी मक्का फसल अवशेष नष्ट करने से रोग में कमी आती है. खेतों में पोटैशियम क्लोराइड के रूप में पर्याप्त पोटैशियम का इस्तेमाल करने से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है.
इस रोग के कारण लगभग 70 प्रतिशत तक उपज का नुकसान हो सकता है. इस रोग के विकास के लिए गर्म और नम स्थितियों का होना जरूरी है. तापमान 21 से 32 डिग्री सेल्सियस अनुकूल होता है. न्यूनतम जुताई वाली अत्यधिक घनी मक्का की फसल रोग के प्रसार के लिए बड़ा कारण मानी जाती है. इसके बीजाणु एक पौधे से दूसरे पौधे में आसानी से पहुंच जाते हैं.
इस रोग की पहचान लंबी एवं धुरी के आकार का अंडाकार भूरे रंग का घाव होता है. जो सबसे पहले निचली पत्तियों पर दिखाई देता है. शुरुआत के समय में ये कवक पत्ते के ऊपर घाव के रूप में छोटे और हीरे के आकार में दिखाई देते हैं. जैसे ही ये परिपक्व होते हैं, आकार में बढ़ जाते हैं. समय के साथ-साथ ये घाव आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं, जिससे पत्तियां पूरी तरह झुलस जाती हैं.
संक्रमण की आशंका कम करने का सबसे प्रभावी तरीका मक्का की संकर रोग रोधक प्रजाति की बुवाई करना है. संक्रमण कम करने के लिए फसल चक्र भी एक कारगर तरीका है. मौसम के अंत में खेतों की जुताई करना बहुत मददगार होता है. यह रोगग्रस्त पौधों से बचे संक्रमित पौधों के अवशेषों को नष्ट करता है.
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