Strawberry farming: ओडिशा के नुआपाड़ा जिले का सुनाबेड़ा पठार इलाका आज स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए मशहूर हो गया है. हालांकि एक वक्त ऐसा भी था जब यहां पर किसान अपनी आजीविका के लिए धान की खेती पर पूरी तरह से निर्भर थे. इस पठारी इलाके में प्रमुख तौर पर कमजोर आदिवासी समूह (PVTG) माने जाने वाले चुक्तिया भुंजिया समुदाय के किसान रहते हैं जो दो साल पहले तक धान की खेती करते थे. इसके जरिए वो अपना गुजारा करते थे. फिर यहां पर रहने वाले 40 वर्षीय किसान कलीराम समेत उनके समुदाय के अन्य 10 किसानों ने स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) की शुरुआत की. इसके बाद से यहां पर एक सकारात्मक बदलाव शुरू हुआ जो आज दो वर्षों बाद यहां पर दिखाई दे रहा है. अब यहां के किसानों की कमाई बढ़ गई है.
पहले की तुलना में यहा के किसान अब तीन से चार गुणा अधिक की कमाई करते हैं. इसके कारण अब अधिक से अधिक संख्या में समुदाय के लोग स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं. चुक्तिया भुंजिया समुदाय के अंदर आए इस बदलाव में चुक्तिया भुंजिया विकास एजेंसी (CBDA) का बड़ा रोल है क्योंकि एजेंसी ने ही समुदाय के लोगों को स्ट़्रॉबेरी की खेती की तरफ स्विच करने का सुझाव दिया. सीडीबीए ओडिशा सरकार द्वारा इस वशेष जनजातियों के कल्याण के लिए बनाई गई एजेंसी है. इसका गठना 1994-95 में हुआ था.
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सुनाबेड़ा पठार में स्ट्रॉबेरी की खेती को सफलता इसलिए मिली क्योंकि यह इलाका स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए फिट बैठता है. समुद्र तल से 3,000 फीट ऊपर स्थित सुनाबेड़ा पठार में स्ट्रॉबोरी की खेती के लिए सही भौगोलिक विशेषताएं हैं. यहां का वातावरण भी ठंडा रहता है. 'इंडियन एक्स्प्रेस' के अनुसार स्ट्रॉबेरी (Strawberry farming)]) की खेती करने वाले किसान कलीराम ने बताया कि यहां की जलवायु के देखते हुए ही सीडीबीए ने हमें स्ट्रॉबेरी की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया. इसके बाद सीबीडीए और बागवानी विभाग की तरफ से कलीराम समेत उनके पंचायत के दो और किसानों को स्ट्रॉबेरी की खेती से संबंधित विशेष ट्रेनिंग के लिए महाराष्ट्र के महाबलेश्वर ले जाया गया.
वहां से लौटने के बाद कलीराम समेत अन्य किसानों को धान की खेती को छोड़कर स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) करने के लिए कहा गया. कलीराम बताते हैं कि इससे पहले किसान धान और बाजरा और सब्जियों जैसी पारंपरिक खेती करते थे. इससे प्रतिवर्ष उन्हें लगभग 70-80 हजार रुपये की कमाई हो पाती थी. पर सीबीडीए की तरफ से स्ट्रॉबेरी की खेती करने की सलाह मिलने के बाद कलीराम ने दो एकड़ जमीन लीज पर ली, क्योकि उनकी अपनी जमीन इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं थी. स्ट्रॉबेरी की खेती करने में आम तौर पर लगभग चार महीने लगते हैं - खेत तैयार करने से लेकर कटाई तक. किसान अक्टूबर में पौधे लगाते हैं और फल जनवरी तक कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं.
कलीराम ने आगे बताया कि उन्होंने दो एकड़ जमीन लीज में ली और और उसमे स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) करने के लिए लगभग एक लाख रुपये खर्च किए. इसके बाद स्ट्रॉबेरी पक कर तैयार हुई तो पहले ही साल में उन्हें चार लाख रुपये की कमाई हुई. कलीराम ने कहा कि सीबीडीए की तरफ से अच्छी गुणवत्ता के स्ट्रॉबेरी के पौधे दिलाने में मदद की गई, जो महाबलेश्वर से मंगाए गए थे. इसके साथ ही जिन किसानों ने स्ट्रॉबेरी की खेती की उन्हें बागवानी विभाग की तरफ से ड्रिप इरिगेशन सिंचाई की सुविधा प्रदान करने के लिए संचालित योजना का लाभ दिया गया. अब कलीराम बताते हैं कि उनकी सफलता को देखते हुए अब आस के गांवों को चुक्तिया भुंजिया समुदाय के लोग भी स्ट्रॉबेरी की खेती से जुड़ रहे हैं.
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एक अन्य किसान बिजया झनकर ने कहा शुरुआत में उनके गांव के सात किसानों ने लगभग 10 एकड़ खेत में स्ट्रॉबेरी की खेती (Strawberry farming) की थी. पर इस बार लगभग 25 किसानों ने 30 एकड़ से अधिक जमीन पर इसकी खेती की है. खेती का रकबा बढ़ने के साथ ही किसानों की संख्या बढ़ रही है. साथ ही इसकी खेती करने वाले किसानों की उम्मीद भी बढ़ी है कि उन्हें स्ट्ऱॉबेरी के अच्छे दाम मिलेंगे और अच्छी कमाई होगी. इस बार किसानों की फसल भी अच्छी हुई है. पर आदिवासी किसानों को लिए स्ट्रॉबेरी बेचना एक कठिन कार्य है हालांकि अधिकारी इसके लिए किसानों को मदद कर रहे हैं.
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