
महाराष्ट्र के अकोला के उमरा गांव में श्रावणी अमावस्या के दूसरे दिन धूमधाम से द्वारका उत्सव मनाया गया. यह उत्सव 350 साल से मनाया जा रहा है. इसकी पुरानी परंपरा आज भी बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है. दरअसल यह उत्सव हमारे घर-समाज में मवेशियों की अहमियत के बारे में बताता है. यह उत्सव किसान अपने साथी बैल के लिए मनाते हैं. किसान अपने बैल को वृषभ राजा मानकर उसे सम्मान देते हैं. जहां साल के 364 दिन बैल किसान की खेती में काम करता है और किसान ऋषभ राजा के कंधे पर हल जोतते हैं.
उसी के उपलक्ष्य में इस दिन किसान बैल को बैलगाड़ी में बिठाकर उसका साज शृंगार कर उसका जुलूस निकालते हैं. बैल का ऋण उतारने के लिए किसान बड़े उत्साह के साथ अपने बैल की शोभायात्रा निकालते हैं.
महाराष्ट्र में श्रावणी अमावस्या के दिन बैल पोला मनाने की परंपरा सालों से चलती आ रही है. जहां अमावस्या के दिन पूरे उत्साह के साथ बैलों को घी की मालिश की जाती है. वहीं श्रावणी अमावस्या के दिन बैलों से खेती का कोई भी काम नहीं करवाया जाता और उनकी पूजा अर्चना की जाती है. पोला मानने का सौभाग्य हर किसान बड़े श्रद्धा के साथ मानते हैं.
अकोला का उमरा गांव ऐसा है, जहां अमावस्या के दूसरे दिन द्वारका उत्सव मनाते हैं. इसमें इंसानों की बैलगाड़ी बनाई जाती है और उसके दो छोर को इंसान ही खींचते हैं. बैलगाड़ी को सजाया जाता है और इस सजे रथ में बैल को साज शृंगार कर उसके कंधे पर मखमली कपड़ा लगाकर उसे सजाते हैं.
यहां की परंपरा ऐसी है कि अमावस्या के दिन यहां 350 साल पहले गांव में एक बीमारी हुई थी. उस बीमारी की वजह से उस महीने अमावस्या पर कोई बैल पोला यानी कि बैलों का उत्सव नहीं मनाया गया. इससे किसान मायूस हुए और उन्होंने बैलों की बीमारी को दूर करने के लिए भगवान से मिन्नतें मांगी. इसके लिए किसान गांव में स्थित वाका जी महाराज के मंदिर गए और वहां से अंगारे वाली विभूति लेकर बीमार बैल लगाया जिसके बाद बैल बीमार नहीं हुए.
इसी श्रद्धा के साथ यहां के किसानों की मान्यता है कि इस विभूति के कारण और महाराज की कृपा के कारण उनके बैलों की बीमारी दूर हुई. इस उपलक्ष में श्रद्धा को ध्यान में रखते हुए यहां के किसानों ने वाकाजी महाराज से मन्नत मांगी और दूसरे दिन यहां पर बैल की शोभायात्रा निकालने की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी निरंतर जारी है.
इस यात्रा में आसपास के गांव के किसान भी शामिल होते हैं. तो वहीं इस गांव की ब्याही बेटी अपने घर वाले के साथ इस त्योहार में शामिल होती है. यह त्योहार इस गांव के लिए एक बड़ा उत्सव होता है. यह उत्सव दिवाली जैसा होता है, जहां बैलों के शृंगार में किसान की पत्नी अपने सोने चांदी के गहने वृषभ राजा के शरीर पर चढ़ाकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं.
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today