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Mother India: मां, मातृभूमि और किसान के जज्बे को सेलिब्रेट करती एक यादगार फिल्म

Mother India: मां, मातृभूमि और किसान के जज्बे को सेलिब्रेट करती एक यादगार फिल्म

फिल्म अक्तूबर 1957 में रिलीज़ हुई. यह उस समय की सबसे महंगे बजट की फिल्म थी. अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए निर्देशक महबूब खान ने कोई कसर ना छोड़ी. 35 एम एम में फिल्म को शूट किया और बाढ़ का एक सीन फिल्माने के लिए 500 एकड़ के विशाल खेत को पानी से भर दिया.

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मातृभूमि और किसान के जज़्बे को celebrate करती एक यादगार फिल्म मातृभूमि और किसान के जज़्बे को celebrate करती एक यादगार फिल्म

शायद ही ऐसा कोई हिन्दी भाषी होगा जो ‘मदर इंडिया’ नाम की फिल्म से वाकिफ ना हो. ये फिल्म ना सिर्फ अभिनेत्री नर्गिस के ज़बरदस्त अभिनय के लिए जानी जाती है, बल्कि इसने भारतीय संस्कृति, समाज और नैतिक मूल्यों के सशक्त चित्रण के लिए भी दुनिया भर में एक विशिष्ट पहचान बनाई. फिल्म के नाम से लेकर इसके बनने तक की कहानी दिलचस्प है और इसके निर्देशक महबूब खान की अपने गाँव की स्मृतियों को भी प्रतिबिंबित करती है.

दरअसल महबूब खान ने अपने करियर की शुरुआत में एक फिल्म बनाई थी, जिसका नाम था ‘औरत’ (1940), यह फिल्म अमेरिकी उपन्यासकार पर्ल एस बॅक के प्रसिद्ध उपन्यासों ‘द गुड अर्थ’ और ‘द मदर’ से प्रेरित थी. पर्ल एस बॅक ने अपना काफी जीवन चीन में बिताया था इसलिए उन्होंने अपने उपन्यासों में चीन के राजनैतिक और सामाजिक बदलावों के बीच फंसे परिवारों और महिलाओं का प्रभावपूर्ण चित्रण किया. 1940-50 मेँ भारत भी कई सामाजिक-राजनैतिक उतार चढ़ावों से गुज़र रहा था. इस सबके बीच फंसी एक किसान औरत के संघर्ष की कहानी महबूब खान को पसंद आई. लिहाजा 1940 मेँ बनी ‘औरत’, जिसकी कहानी लिखी बाबूभाई मेहता और संवाद लिखे वजाहत मिर्ज़ा ने, फिल्म ने ठीक ठाक बिजनेस किया. इसके बाद महबूब खान दूसरी फिल्मों को बनाने में जुट गए. उनकी फिल्म ‘अंदाज़’ और ‘आन’ (जो पहली कलर हिन्दी फिल्म थी) बहुत हिट हुईं लेकिन ‘औरत’ की कहानी उनके मन में लगातार गूँजती रही.

1950 तक महबूब खान एक मशहूर और सफल निर्देशक के तौर पर फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बना चुके थे. तो उन्होने अपनी ही फिल्म ‘औरत’ को एक बार फिर बनाने के बारे में सोचना शुरू किया. यह शायद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की अकेली ऐसी फिल्म है जिसे एक ही निर्देशक ने दो बार बनाया. वरना अक्सर फिल्म निर्देशक किसी और भाषा की फिल्म या किसी अन्य निर्देशक की फिल्म को दोबारा बनाते हैं – जिसे रीमेक कहा जाता है.

लेकिन महबूब खान इस कहानी और इसके मुख्य किरदार ‘राधा’ से इतने प्रभावित थे कि वे एक बार फिर इस पर फिल्म बनाना चाहते थे. इसके पीछे एक अहम कारण ये भी था कि अब भारत आज़ाद हो गया था और अब इस फिल्म को और भी मुखर रूप से बनाया जा सकता था. दूसरी बड़ी वजह थी अमरीकी लेखिका कैथेरीन मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ 1927 में लिखी गई इस किताब में कैथेरीन मेयो ने भारतीय समाज और संस्कृति की कड़ी आलोचना की थी और यह साबित करने का प्रयास किया था कि भारतीय आज़ादी पाने के लायक नहीं हैं. महबूब उनके इस नज़रिये का ज़बरदस्त जवाब देना चाहते थे. बेशक मेयो की किताब की पुरजोर आलोचना हुई थी. महात्मा गांधी ने भी इस किताब की आलोचना की थी और दुनिया भर में पचास से ज़्यादा किताबें और लेख इसके विरुद्ध प्रकाशित हुये. लेकिन महबूब खान ऐसे माध्यम से अपना जवाब अभिव्यक्त करना चाहते थे, जो ना सिर्फ कला की दृष्टि से शास्त्रीय हो बल्कि आम जन के दिलों में भी सदा के लिए अपनी जगह बना ले.

आज ‘मदर इंडिया’ फिल्म को सभी जानते हैं लेकिन कैथेरीन मेयो की ‘मदर इंडिया’ से कम लोग ही परिचित हैं. बहरहाल, कहानी तो महबूब खान के पास थी ही, उन्होने नायिका के किरदार के लिए नर्गिस को चुना जो उस वक्त की सबसे सफल अदाकारा थीं. वे दिलीप कुमार को नायिका राधा के बिगड़ैल बेटे बिरजू की भूमिका में लेना चाहते थे लेकिन चूंकि नर्गिस और दिलीप कुमार प्रेमी युगल के तौर पर बहुत सी फिल्में कर चुके थे, इसलिए अपने बेटे के किरदार में दिलीप कुमार को रखना नर्गिस को ही ठीक नहीं लगा. आखिरकार, नवोदित अभिनेता सुनील कुमार को इस भूमिका के लिए चुना गया और अन्य उभरते सितारे राजेंद्र कुमार को दूसरे बेटे रामू के रोल में अभिनेता राजकुमार नायिका राधा के पति की भूमिका में थे और कन्हैयालाल विलेन सेठ सुखीलाला के रोल में, कन्हैयालाल ने फिल्म ‘औरत’ में भी यही भूमिका निभाई थी. नौशाद ने इस फिल्म के संगीत की रचना की. यहाँ ये भी बता दें कि ‘मदर इंडिया’ में पहली बार बैकग्राउंड स्कोर के तौर पर पाश्चात्य संगीत के आर्केस्ट्रा का इस्तेमाल हुआ. बाद में यह हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में काफी प्रचलित हो गया.

छोटे बिरजू के लिए बाल कलाकार चुनने में भी परेशानी का सामना करना पड़ा. पहले जगदीप को चुना गया था (ये वही जगदीप हैं जो बाद में हिन्दी फिल्मों के लोकप्रिय कोमीडियन बने), लेकिन अंततः झोपड़ पट्टी में रहने वाले कुछ बच्चों में से एक साजिद खान को इस भूमिका के लिए चुन लिया गया. साजिद को बाद में महबूब खान ने गोद ले लिया. उन्होंने महबूब खान की आखिरी फिल्म ‘सन ऑफ इंडिया’ में मुख्य भूमिका निभाई थी. बाद में साजिद ख़ान ने कुछ साल हॉलीवुड में भी काम किया.

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1955 में फिल्म की शूटिंग शुरू की गयी. फिल्म की कहानी ज़्यादातर लोग जानते हैं. ये कहानी आज भी हमारे गाँवों की हकीकत है. नायिका राधा नयी-नवेली दुल्हन बन ससुराल आती है. लेकिन उसकी खुशहाल ज़िंदगी बोझिल हो जाती है जब उसे पता चलता है कि उसके पति और सास को गाँव के सेठ का कर्जा चुकाना है. पति शामू की दोनों बाज़ू एक हादसे में बेकार हो जाती हैं तो वह हताश होकर कहीं दूर चला जाता है. अब अपने दो बच्चों और सास का जिम्मा राधा पर आ जाता है. हालात उसके एक बेटे बिरजू को डाकू बना देते हैं. अंततः, गाँव की इज्ज़त और अपने आदर्शों के लिए राधा अपने ही बेटे को गोली मार देती है. फिल्म एक गाँव के जरिये ना सिर्फ एक माँ की कहानी कहती है, बल्कि एक मेहनतकश किसान और उसके देशप्रेम को भी प्रतिबिम्बित करती है कि किस तरह एक वृहत्तर भले के लिए एक माँ और एक किसान अपने वात्सल्य तक की बलि दे देती है.

फिल्म अक्तूबर 1957 में रिलीज़ हुई. यह उस समय की सबसे महंगे बजट की फिल्म थी. अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए निर्देशक महबूब खान ने कोई कसर ना छोड़ी. 35 एम एम में फिल्म को शूट किया और बाढ़ का एक सीन फिल्माने के लिए 500 एकड़ के विशाल खेत को पानी से भर दिया. नतीजा ये हुआ कि सिर से पाँव तक कर्जे में डूब गए लेकिन फिल्म तब भी पूरी ना हुई. आखिरकार उस समय की मशहूर अदाकारा निम्मी और कुछ अन्य फिल्म कलाकारों ने महबूब खान की मदद की और फिल्म में कुछ और पैसा लगाया.

कहना ना होगा कि फिल्म ने रिलीज़ होते ही सारे बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तोड़ दिये. सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और निर्देशक के फिल्मफेयर अवार्ड के साथ अनेक राष्ट्रीय पुरस्कार भी बटोरे. यह तो बहुत से लोग जानते ही होंगे कि फिल्म सेट पर लगी एक आग से नर्गिस को बचा लेने के साथ ही शुरू हुई थी नर्गिस और सुनील दत्त की प्रेम कहानी, जिन्हें शूटिंग के दौरान अपने प्रेम प्रसंग को सार्वजनिक करने के लिए सख्त मनाही की गई क्योंकि फिल्म में वे माँ और बेटे की भूमिका में थे. फिल्म रिलीज़ होने के बाद दोनों विवाह सूत्र में बंध गए.

लेकिन ये बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि ‘मदर इंडिया’ विदेशी भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट की जाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी. महबूब खान के पास ऑस्कर पुरस्कार समारोह में जाने और अमेरिका में अपनी फिल्म को प्रमोट करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी ने उनके लिए सारा बंदोबस्त किया. जब महबूब खान को मालूम हुआ कि उनकी फिल्म मात्र एक वोट से नहीं जीत पायी और ऑस्कर एक इटालियन फिल्म ‘नाइट्स ऑफ कैबिरिया’ को मिल गया तो उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा.

बहरहाल, ‘मदर इंडिया’ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की फिल्मजगत में एक विशेष छाप छोड़ गई. इसे कई भाषाओं में डब किया गया. राधा का किरदार हमारी बहुत सी फिल्मों में दोहराया जाता रहा और आज भी किसी भी मजबूत महिला किरदार के लिए ‘राधा’ को एक आदर्श माना जाता है. इस तरह एक फिल्म ने एक किसान और माँ के निस्वार्थ प्रेम और अडिग निश्चय को अमर बना दिया.