फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच संघर्ष आजकल खबरों में है. हिंसक और हृदयविदारक घटनाओं के बीच सबसे बड़ी चिंता की बात है वहां ऑलिव यानी जैतून की खेती और पेड़ों पर इस संघर्ष का नकारात्मक असर. माना जाता है कि हजारों साल पहले ऑलिव खेती की शुरुआत फिलिस्तीन से ही हुई. यहां होने वाली अन्य फसलों में प्रमुख हैं तरबूज, नींबू, खजूर, खीरा, अंजीर, अमरूद, पालक और बैंगन. फिलिस्तीन की आबादी का बड़ा हिस्सा रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर है. इसलिए कोई भी हिंसक संघर्ष वहां के किसानों और आर्थिक व्यवस्था पर गंभीर चोट करता है.
फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच के संघर्ष की कहानी दशकों पुरानी है. इस बीच दोनों छोटे और पड़ोसी देशों में ऐसे अनेक फिल्म निर्देशक, साहित्यकार और कलाकार हुए हैं, जिन्होने इस संघर्ष के बीच फंसी आम जनता और उसकी त्रासदी को अपनी रचनाओं में दिखाने की प्रभावपूर्ण कोशिश की है. फिलिस्तीनी सिनेमा को तीन भागों में बांटा जाता है- शुरुआत (1935-1948), मौन का दूसरा दौर (1948-1967), और निर्वासन में सिनेमा (1968-1982). उसके बाद भी फिल्म निर्माता-निर्देशक फिल्में बनाते रहे हैं, लेकिन अक्सर अपने देश से बाहर रह कर.
इज़राइल में 1960 के दशक में फिल्में बनना शुरू हुईं. ‘बौरेकास’ फिल्मों (यानी कॉमिक मेलोड्रामा, जो हमारे यहां की रोमांटिक फिल्मों जैसी ही थीं) के दौर के बाद इज़राइली फिल्में फ्रेंच न्यू वेव सिनेमा से प्रभावित हुईं. लेकिन आज इज़राइल के फ़िल्ममेकर्स नवयथार्थवाद, और जादुई यथार्थवाद, ब्लेक कॉमेडी और डार्क ह्यूमर आदि शैलियों के साथ-साथ ईरानी फिल्म निर्माताओं की तरह सरल यथार्थवादी फिल्में बना रहे हैं, जो अपने सरल फ्रेम और आउटडोर लोकेशन के असरदार विज़ुअल्स के साथ एक खास छाप छोड़ जाती हैं. इनमें नादाव लेपिड, एरन रिक्लिस, सैमुएल माओज़, एरी फ़ोल्मन और ताल्या लावी जैसे अहम फ़िल्म निर्माता और निर्देशक शामिल है.
ऐसी ही एक फ़िल्म है, 2008 में रिलीज़ हुई ‘लेमन ट्री’. एक असल घटना को आधार बना कर बेहद खूबसूरत फिल्म बनाई निर्देशक एरन रिकलिस ने. दरअसल 2002 से 2006 तक इज़राइल के रक्षा मंत्री के नए आवास के पास ही पड़ता था एक फिलिस्तीनी विधवा किसान का नींबू का बागीचा.
रक्षा मंत्री ने इज़राइली सीक्रेट सर्विस के कहने पर उस बागीचे को कटवाने का निर्देश दे दिया. वह महिला किसान इस आदेश के खिलाफ अकेली खड़ी हुई और इज़राइली सुप्रीम कोर्ट तक गई. ‘लेमन ट्री’ फिल्म उस महिला किसान के इसी साहस और जीवटता की कहानी है. असल में तो महिला किसान यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में हार गई थी, जैसा कि अपेक्षित भी था. लेकिन फिल्म में अदालत आदेश देती है कि नींबू के पेड़ों को काट कर छोटा कर दिया जाए.
फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा एरन रिकलिस और सुहा अर्राफ़ ने. यह फिल्म ना सिर्फ आम इज़राइली और फिलिस्तीनी के बीच एक अनकहे रिश्ते को सुंदरता से पेश करती है, बल्कि इज़राइली और फिलिस्तीनी समाज में एक महिला की भूमिका और स्थिति पर भी कमेन्ट करती है. अधेड़ किसान सलमा ज़िदान की दोनों बेटियां विवाहित हैं और बेटा अमेरिका में काम करता है. उसके बच्चों में से किसी को भी उस नींबू के बगीचे में कोई दिलचस्पी नहीं जिसकी वह अपने एक पुराने सहायक के साथ दिन-रात मेहनत करके देख-रेख करती है, उससे आजीविका कमाती है.
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यह नींबू का बगीचा उसके पिता और पति की निशानी है, उसके अस्तित्व को सार्थक करता है और इस अर्थ में उसके वजूद का ही आईना है. इस तरह, इस बगीचे को बचाने की मुहिम ना सिर्फ अपने अतीत और स्मृति को बचाने के लिए है बल्कि अपने अस्तित्व को बचाने का संघर्ष भी है. एक विरोधी देश के रसूखदार मंत्री से तनातनी के बीच सलमा का सामना होता है मंत्री की पत्नी मीरा से, जो बगैर कुछ कहे यह अभिव्यक्त कर देती है कि उसे सलमा से सहानुभूति है और वह उसकी स्थिति समझ सकती है.
मीरा सलमा से मिलने की कोशिश भी करती है, लेकिन सुरक्षा घेरे के कारण ऐसा नहीं कर पाती. मीरा भी अपने पति की व्यस्तता और विदेश में रह रही बेटी के बीच बहुत अकेली महसूस करती है. वह अपने पति और अन्य सुरक्षाकर्मियों को समझाना चाहती है एक नींबू के बगीचे से उनकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं हो सकता- लेकिन उसकी बात कोई सुनने को ही तैयार नहीं है. आखिरकार मीरा और उसके पति का रिश्ता टूट ही जाता है.
उधर सलमा कानूनी लड़ाई के लिए एक युवा वकील, जाईद दौद की मदद लेती है, उसके प्रति आकर्षित होती है. वर्षों बाद वह किसी अनजान पुरुष के संपर्क में आई है. कठिन परिस्थितियों में वे दोनों एक-दूसरे का संबल भी बन जाते हैं. लेकिन गांव के बुज़ुर्गों को उनकी नज़दीकियां रास नहीं आतीं, उनके लिए यह रिश्ता अगर बनता है तो वह सलमा के पति की स्मृति का अपमान होगा.
इस तरह, दोनों ही महिलाएं अपने परिवेश और परिस्थिति में अकेली हैं, और जो उन्हें ठीक लगता है, उसके लिए अकेले ही जूझ रही हैं. फिल्म हीब्रू और अरेबिक दोनों भाषाओं में है-इस अर्थ में वह इज़राइल और फिलिस्तीन के राजनीतिक भेद को लांघ जाती है. इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच खड़ी की गई विशालकाय दीवार का दृश्य बार-बार उभरता है. नींबू के बागीचे के विभिन्न शॉट्स बागीचे को भी एक किरदार के रूप में खड़ा करते हैं; बागीचे का खत्म होना, मानो एक भरे-पूरे अस्तित्व और किरदार का खत्म होना हो.
निर्देशक एरन रिकलिस हाल ही में भारत आए थे और ‘मनीकंट्रोल’ को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होने कहा था कि एक आर्टिस्ट, कथाकार और फ़िल्मकार के तौर पर उनका प्रयास दुनिया के तमाम तरह के लोगों को साथ लाना है. आपकी विचारधारा और विश्वास के बरक्स दूसरी विचारधारा और विश्वास को खड़ा करना है ताकि आप उसे भी समझ सकें और उसके लिए भी जगह बना सकें. इस तरह एक समावेशी मानसिकता को प्रोत्साहित करना ही एक रचयिता का लक्ष्य होता है.
‘लेमन ट्री’ इस काम को बहुत प्रभावपूर्ण तरीके से करती है. बगैर कोई राजनीतिक कमेन्ट किए वह इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच एक नाज़ुक और तनावपूर्ण स्थिति को उधेड़ कर रखती है और उसमें फंसे आम आदमी की दुविधा को भी दर्शाती है, एक सरल सी कहानी को संवेदनशील दृश्यों, संवादों के बीच की चुप्पी के जरिए सार्वभौमिक बनाती है.
मार्च-अप्रैल 2008 में यह फिल्म रिलीज़ हुई और हालांकि इज़राइल में यह इतना अच्छा कारोबार नहीं कर पाई लेकिन अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इसकी बहुत प्रशंसा की गई, इसे अनेक पुरस्कार भी मिले.
बहरहाल, इसमें कोई संदेह नहीं कि एरन रिकलिस ने ‘लेमन ट्री’ के रूप में एक कालजयी कृति की रचना की है. दृश्यों की यह कविता मदुरता से बता जाती है कि मनुष्यता, सहानुभूति और प्रेम किसी भी राजनीतिक संघर्ष और हिंसा के परे लोगों को जोड़े रख सकता है और यही मानवता के लिए एक उम्मीद भी है.
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