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Hollywood Film: जब अमेरिकी राष्ट्रपति हो गए थे किसानों की समस्या पर बनी इस फिल्म से नाराज़!

Hollywood Film: जब अमेरिकी राष्ट्रपति हो गए थे किसानों की समस्या पर बनी इस फिल्म से नाराज़!

ग्लैमर और बड़े बजट की भव्य फिल्मों की धुन में व्यस्त हॉलीवुड भी किसानों की समस्याओं से अछूता नहीं रहा . 80 के दशक में अमेरिकी सरकार ने बड़ी कंपनियों को प्रोत्साहित किया कि वे कृषि के क्षेत्र में आएंऔर इसे एक बड़े उद्योग की तरह स्थापित करें.

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अमरीकी राष्ट्रपति हो गए थे किसानों की समस्या पर बनी फिल्म से नाराज़ अमरीकी राष्ट्रपति हो गए थे किसानों की समस्या पर बनी फिल्म से नाराज़

किसानों का संघर्ष और उनकी समस्याएं कमोबेश दुनिया भर में एक सी ही रही हैं, वहीं सिनेमा की समाज और सरकार को प्रेरित करने या हिला देने की ताकत का भी लोहा दुनिया भर में माना जाता है. अमेरिका को अमूमन ऐसा देश माना जाता है जहां के किसान थोड़ी-बहुत दिक्कतों के बावजूद खुशहाल और समृद्ध हैं. लेकिन दरअसल, अमेरिका के किसानों का सफर भी संघर्षपूर्ण रहा है और आज भी है. व्यापक स्तर पर कृषि का उद्योगीकरण और संस्थानीकरण करने की अपनी समस्या है. वहां के किसान भी बाढ़, सूखे, बवंडर जैसी कुदरती आपदाओं से जूझते हुए, क़र्ज़े और बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे किसानों की ज़मीनों को हथियाने जैसे मुद्दों का सामना करते रहे हैं.

ग्लैमर और बड़े बजट की भव्य फिल्मों की धुन में व्यस्त हॉलीवुड भी किसानों की समस्याओं से अछूता नहीं रहा . 80 के दशक में अमरीकी सरकार ने बड़ी कंपनियों को उत्साहित किया कि वे कृषि के क्षेत्र में आयें और इसे एक बड़े उद्योग की तरह स्थापित करें. उस वक्त अमेरिका में कृषि सबसे ज़्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र था. 1981 में पूरी दुनिया में इस्तेमाल किए जाने वाले खाद्य पदार्थों के 11 प्रतिशत का उत्पादन अमेरिका में होता था. लेकिन तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की कृषि नीतियों के तहत, छोटे किसानों पर सरकार से लिए कर्जे को चुकाने का दबाव बढ़ने लगा.

यह 80 के दशक के कृषि संकट की शुरुआत थी. खेती के लिए लिए गए कर्जे तेज़ी से बढ़े, उत्पादन तो बढ़ा लेकिन निर्यात कम हो गया, जिससे किसानों की आय पर सीधा असर पड़ा. कृषि संकट के तीन बड़े कारण थे- असफल सरकारी नीतियाँ, तेज़ी से बढ़ता कर्जे का भार, और कृषि संबन्धित चीजों की कीमतों में भारी उतार चढ़ाव. इसके साथ ही 1983 और 88 में आए सूखे ने तो किसानों की मानो कमर ही तोड़ दी. इस संकट के केंद्र में था आयोवा क्षेत्र. यहाँ किसानों की ज़मीनों की नीलामी की संख्या तेज़ी से बढ्ने लगी.

हॉलीवुड के कई नामचीन कलाकार किसानों की इस समस्या को करीब से देख रहे थे. उनमें से एक थीं जेसिका लाँग. जेसिका ने एक दिन अखबार में कुछ किसानों की तस्वीर देखी और वह इतनी द्रवित हुईं कि आयोवा के किसानों पर फिल्म बनाने का फैसला कर लिया. जेसिका लाँग को हाल में ही फिल्म ‘टूटसी’ में अभिनय के लिए ऑस्कर मिला था और ‘फ़्रांसेस’ में अभिनय के लिए दुनिया भर में उनकी तारीफ हो रही थी. अफसोस कि इसके बावजूद फिल्म की स्क्रिप्ट को हॉलीवुड का कोई स्टूडियो खरीदने के लिए तैयार नहीं था. काफी जद्दोजहद के बाद डिज़्नी स्टुडियोस की टचस्टोन फिल्म्स डिविजन ने इस स्क्रिप्ट को ले लिया. रिचर्ड पियर्स को बतौर निर्देशक चुना गया. रिचर्ड पियर्स को कम बजट और हाई क्वालिटी फिल्मों के लिए जाना जाता था. ज़ाहिर था कि जेसिका लाँग और उनके पार्टनर सैम शेफ़ेर्ड फिल्म में मुख्य भूमिका में थे.

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इस फिल्म का नाम रखा गया ‘कंट्री’ यानी गांव. फिल्म को असली लोकेशन यानी आयोवा में शूट किया गया और जहां तक संभव हुआ वहीं के किसानों के बीच शूटिंग की गई. फिल्म की कहानी है जिल आईवी (सैम शेफ़ेर्ड) और ज्वेल आईवी (जेसिका लाँग) नाम के किसान दंपति की, जो अपने कर्जे की किश्त नहीं चुका पाये हैं और अगर समय रहते वे कर्जा नहीं चुका पाते तो उनकी पुश्तेनी ज़मीन को नीलाम कर दिया जाएगा, जिस पर उनका परिवार पिछले सौ सालों से किसानी करता आया है. जिल पूरी कोशिश करता है कि किसी तरह उसकी ज़मीन को बख्श दिया जाये और उसे कुछ और समय दे दिया जाये लेकिन धीरे धीरे वह टूटता जाता है और शराब की लत में खुद को डुबो देता है. जब ज्वेल को ये एहसास होता है कि उसका पति कमजोर पड़ रहा है तो वह मजबूती से खड़ी हो जाती है व्यवस्था से लड़ने के लिए और अपने पड़ोसी किसान परिवारों को भी प्रशासन के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित करती है.

फिल्म के सबसे प्रभावपूर्ण दृश्य वे हैं जो बिना कुछ साफ-साफ कहे यह अभिव्यक्त करते हैं कि किस तरह सरकार की असपष्ट नीतियाँ एक ‘बेलेन्स शीट’ के नाम पर परिवारों को तोड़ देती हैं, ज़िंदगियों को बाधित और यातनापूर्ण बना देती हैं. सैम शेफ़ेर्ड और जेसिका लाँग तो मंझे हुये कलाकार थे ही, उनके बेटे की भूमिका में लीवाइ नेबेल ने प्रशंसनीय काम किया. किसानों के बीच शूटिंग करते हुए निर्देशक रिचर्ड पियर्स ने फिल्म को ऐसा माहौल दिया कि वह एक फीचर फिल्म के साथ साथ डॉक्यूमेंट्री फिल्म जैसी भी लगे ताकि दर्शकों को असलियत का एहसास दिलाया जा सके.

कहना ना होगा कि सितंबर 1984 में रिलीज़ होते ही इस फिल्म ने दर्शकों के दिलों को जीत लिया और फिल्म समीक्षकों ने तारीफ़ों के पुल बांध दिये. समीक्षकों ने लिखा कि फिल्म ना सिर्फ यह दर्शाती है कि वास्तविकता कितनी कड़वी और निर्मम है, बल्कि यह अपने तरीके से एक सशक्त राजीतिक फिल्म है जो यह जतलाने में कामयाब रही कि किस तरह रीगन प्रशासन की नीतियों ने छोटे किसानों की कमर तोड़ दी है. ‘कंट्री’ ने बॉक्स ऑफिस पर ठीक ठाक बिज़नेस किया और इसे कई नामचीन पुरस्कारों के लिए नोमिनेट भी किया गया.

लेकिन फिल्म की असली सफलता थी इसका यथार्थवाद. अमरीकी संसद के सदस्य इस फिल्म से इतने प्रभावित हुए कि अभिनेत्री और प्रोड्यूसर जेसिका लाँग को अमेरिकी कांग्रेस में बतौर विशेषज्ञ किसानों के मामलात पर गवाही देने के लिए बुलाया गया.

रीगन की कृषि नीतियों में आखिरकार कुछ बदलाव किए गए लेकिन राष्ट्रपति रीगन इस फिल्म और इसके असर से इतने नाराज़ हो गए कि उन्होने अपनी निजी डायरी में इस फिल्म को “हमारे कृषि कार्यक्रमों के खिलाफ एक ज़बरदस्त प्रोपगंडा” का नाम दिया. मगर सच तो ये है किसानों की स्ममस्याएं और 80 का कृषि संकट एक बेहद कड़वी और त्रासदीपूर्ण सच्चाई थी जिसे नकारा नहीं जा सकता था. इसी विषय को लेकर 1984 में ही दो और महत्वपूर्ण फिल्में बनीं – ‘द रिवर’ और ‘प्लेसेस इन द हार्ट’. लेकिन ‘कंट्री’ ने तत्कालीन किसानों की दुर्दशा को इतने सशक्त रूप से दर्शाया कि आने वाली सरकारों ने अमेरिकी किसानों के लिए नीतियों में कई बदलाव किए और कर्जा वसूलने की शर्तों में ढील दी.

आज भी वहां के किसान कई समस्याओं से जूझ रहे हैं जिनमें क्लाइमेट चेंज एक अहम समस्या है . और किसानों की तरह अमेरिका के फ़िल्मकार भी इस मुद्दे के प्रति बहुत सचेत हैं. अभिनेता जेसिका लाँग, सैम शेफ़ेर्ड और निर्देशक रिचर्ड पियर्स ने आयोवा के किसानों के साथ मिल कर यह साबित किया कि अगर साथ मिल कर लगन से कोई प्रयास किया जाये तो वह असफल नहीं होता.