हर सीजन में जब किसान खाद की बोरी लेने दुकान पर जाता है, तो मन में आस होती है कि खेत में ताक़त आएगी, फसल अच्छी होगी, घर में अन्न भरेगा. लेकिन, कई बार किसान खाली हाथ लौट आता है, या फिर उसे वही खाद काले बाज़ार से दोगुनी-तिगुनी क़ीमत पर खरीदनी पड़ती है. सच तो ये है कि जो खाद किसान की मिट्टी में जानी चाहिए, वही खाद गांव-गांव के कुछ दलाल, व्यापारी और बड़े उद्योगपति मिलकर बीच रास्ते से हड़प लेते हैं और यह सब खेल होता है किसान के नाम पर. देश में सरकार हर साल दो लाख करोड़ से ज़्यादा रुपये खाद की सब्सिडी पर खर्च करती है. यूरिया की बोरी किसान को 266 रुपये में मिलती है, जबकि यही चीज़ उद्योगों को बाज़ार से दस गुना महंगी पड़ती है. यही फ़र्क सबसे बड़ा धंधा बना चुका है.
गांव में नकली आधार कार्ड और जमीन के कागज़ बना दिए जाते हैं और उनके नाम पर बोरी उठा ली जाती है. बड़े किसानों के नाम पर सैकड़ों बोरी दिखाई जाती है, पर असल में आधी बोरी भी खेत में नहीं पहुंचती. नकली सहकारी समितियां और कंपनियां बनाकर खाद उठाई जाती है और सीधे कारखानों में भेज दी जाती है.
दुकानदार मशीन में नकली अंगूठे से एंट्री कर देता है और फिर यही बोरी माफ़िया जमा कर लेता है, और बाद में किसान को काले बाज़ार में महंगे दामों पर बेचता है. हरियाणा में प्लाइवुड फैक्ट्रियों में सब्सिडी वाली यूरिया की नीम की परत उतारकर गोंद बनाया गया. राजस्थान में किसानों को मजबूरी में बेकार की चीज़ें खरीदवाकर डीएपी दी गई. पूरे देश में ये खेल हर साल हज़ारों करोड़ की चोरी कर लेता है.
केन्या ने ई-वाउचर से किसानों को सीधे सब्सिडी दी. नाइजीरिया में मोबाइल से किसान को फायदा मिला, बिचौलिया बाहर हो गया. चीन ने ब्लॉकचेन से खाद और कीटनाशक की निगरानी शुरू कर दी. भारत भी अगर ये सब अपनाए, तो किसान को राहत मिलेगी और चोरी करने वालों की जड़ कट जाएगी.
हर चोरी हुई खाद की बोरी मतलब चोरी हुई फसल. समय आ गया है कि सब्सिडी किसान तक पहुंचे, न कि माफ़िया तक. किसान को लाइन में लगने की नहीं, इज़्ज़त से जीने की ज़रूरत है. उसे भरोसा चाहिए, न कि धोखा. और देश को चाहिए ऐसी व्यवस्था, जो खेत को ताक़त दे, माफ़िया को.
(लेखक भारत सरकार की ओर से बनाई गई एमएसपी कमेटी के सदस्य हैं)
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