आलू उत्पादन के लिए खास किस्में लॉन्चभारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने ICAR-सेंट्रल पोटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट, शिमला द्वारा विकसित आलू की चार नई किस्मों को पूरे देश में बीज उत्पादन और बढ़ाने के लिए आधिकारिक तौर पर नोटिफाई किया है. सेंट्रल सीड कमेटी की सिफारिशों के आधार पर, नई जारी की गई किस्में कुफरी रतन, कुफरी चिपभारत-1, कुफरी चिपभारत-2, और कुफरी तेजस को पूरे देश में क्वालिटी बीज के रूप में इस्तेमाल के लिए मंजूरी दी गई है, जिससे आलू की पैदावार और प्रोसेसिंग क्षमता बढ़ाने के नए अवसर खुलेंगे.
ICAR-CPRI के डायरेक्टर डॉ. बृजेश सिंह ने वैज्ञानिकों को उनके लगातार योगदान के लिए बधाई दी और इसे खेती करने वाले समुदाय और आलू-आधारित उद्योगों के लिए एक मील का पत्थर बताया. उन्होंने जोर देकर कहा कि इन किस्मों के आने से न सिर्फ उत्पादकता बढ़ेगी, बल्कि खाने और प्रोसेसिंग उद्योगों दोनों को सपोर्ट देकर भारत के आलू सेक्टर को भी मजबूती मिलेगी.
• कुफरी रतन: एक मध्यम समय में पकने वाली (90 दिन), ज्यादा पैदावार वाली (37–39 टन/हेक्टेयर) लाल छिलके वाली खाने वाली आलू की किस्म, जो उत्तर भारतीय मैदानी और पठारी क्षेत्रों में आसानी से उग सकती है. इससे आकर्षक कंद निकलते हैं जिन्हें लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है.
• कुफरी तेजस: गर्मी सहन करने वाली, मध्यम समय में पकने वाली (90 दिन), ज्यादा पैदावार वाली (37–40 टन/हेक्टेयर) और खाने वाली आलू की किस्म, जो हरियाणा, पंजाब, यूपी, एमपी, गुजरात और महाराष्ट्र सहित भारतीय मैदानों के लिए उपयुक्त है. इसे सामान्य तापमान में अच्छी तरह से स्टोर किया जा सकता है.
• कुफरी चिपभारत-1: एक मध्यम समय में पकने वाली (100 दिन), ज्यादा पैदावार वाली (35–38 टन/हेक्टेयर) चिप प्रोसेसिंग किस्म, जिसकी सिफारिश भारतीय मैदानों के लिए की गई है. इसमें ज्यादा ड्राई मैटर (21%), कम रिड्यूसिंग शुगर होता है, और इससे लिमिट में रंग वाले चिप्स बनते हैं.
• कुफरी चिपभारत-2: जल्दी पकने वाली (90 दिन), ज्यादा पैदावार वाली (35–37 टन/हेक्टेयर) चिप प्रोसेसिंग किस्म, जिसमें समान रूप से ज्यादा ड्राई मैटर और बेहतरीन स्टोरेज क्षमता होती है, जो प्रोसेसर के लिए लगातार सप्लाई मुहैया करती है.
डॉ. सलेज सूद ने बताया कि ये इनोवेशन ICAR-CPRI की क्षेत्रों के हिसाब से फसलों की किस्में विकसित करने की सोच के बारे में बताते हैं, और खेती से होने वाली आय, फसलों की सहनशीलता बढ़ाने और किसान-उद्योग संबंधों को मजबूत करने में उनकी भूमिका को भी दर्शाते हैं.
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