मकई खरीफ के सीजन में एक महत्वपूर्ण फसल मानी जाती है. झारखंड में धान के बाद सबसे अधिक मकई की खेती की जाती है. यहां 2.72 लाख हेक्टेयर में मकई की खेती की जाती है. मक्का की खेती के लिए 500-800 मिमी की बारिश पर्याप्त मानी जाती है. जबकि झारखंड में औसत बारिश इससे अधिक होती है. इस फसल की खासियत यह होती है कि कम बारिश की अवस्था में भी इसकी खेती हो जाती है. इस फसल पर जलवायु परिवर्तन का असर बेहद कम होता है. इसलिए वर्तमान समय में जिस तरह से अनियमित बारिश होती है, मक्के की खेती सबसे बेहतर मानी जाती है, इससे किसानों को नुकसान नहीं होता है.
अब मॉनसून की बारिश शुरु होने वाली है ऐसे में किसानों को खेत की तैयारी पर अब ध्यान चाहिए. मकई की खेती अलग-अलग प्रकार की मिट्टीयों में की जा सकती है. पर बलुई और दोमट मिट्टी जिसमें ऑक्सीजन का संचार सही तरीके से हो और पानी की निकासी की उचित व्यवस्था हो ऐसी मिट्टी मक्के की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है. मक्के की खेती के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए. खेत की जुताई अच्छे तरीके से करनी चाहिए, इससे खर पतवार और कीट औऱ रोगों के बचाने में राहत मिलती है. मिट्टी में नमी बरकरार रखने के लिए जुताई के तुरंत बाद मिट्टी पर पाटा चला देना चाहिए.
झारखंड के किसान पारंपरिक किस्म का भी उपयोग मकई की खेती के लिए करते हैं. हालांकि झारखंड की जलवायु में जिन किस्मों की खेती की जा सकती है. इनमें DMH 121, PUSA HQPM 5 Improved, Pusa HQPM 1 Improved, CMH 08-292, BIO 9544 शामिल हैं. जबकि मकई की कुछ देशी किस्में भी हैं जिनकी खेती की जाती है वो हैं कंचन, सुवान, कंम्पोजिट 1 हैं. आईआरआई के वैज्ञानिक डॉ संतोष कुमार ने बताया कि मक्के की खेती को तैयार होने में अलग-अलग समय लगता है. झाऱखंड में हरे भुट्टे की मांग ज्यादा होती है. आम तौर पर मध्यम अवधि की किस्में 70-80 दिनों में तैयार हो जाती है.
डॉ संतोष कुमार ने बताया कि मक्के की बुवाई खरीफ सीजन में मौसम पर निर्भऱ करती है. 15 जून से 15 जुलाई तक इसकी बुवाई का सही समय माना जाता है. हालांकि पहाड़ी और कम तापमान वाले क्षेत्रों में मई के अंत से जून से पहले सप्ताह में इसकी बुवाई की जा सकती है. मकई के बीज को 3.5 सेमी की गहराई पर बोना चाहिए. इससे बीज अच्छे तरीके से ढक जाता है अंकुरण अच्छे से होता है. 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से किसान मक्के की बुवाई कर सकते हैं.
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